वि꣡ चि꣢द्वृ꣣त्र꣢स्य꣣ दो꣡ध꣢तः꣣ शि꣡रो꣢ बिभेद वृ꣣ष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢ण श꣣त꣡प꣢र्वणा ॥१६५२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वि चिद्वृत्रस्य दोधतः शिरो बिभेद वृष्णिना । वज्रेण शतपर्वणा ॥१६५२॥
वि꣢ । चि꣣त् । वृत्र꣡स्य꣢ । दो꣡ध꣢꣯तः । शि꣡रः꣢꣯ । बि꣣भेद । वृष्णि꣡ना꣢ । व꣡ज्रे꣢꣯ण । श꣣त꣡प꣢र्वणा । श꣣त꣢ । प꣣र्वणा ॥१६५२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में राजा वा सेनापति के दृष्टान्त से परमात्मा के वीर कर्म का वर्णन है।
जैसे (वृष्णिना) गोली बरसानेवाली बन्दूक से अथवा (शतपर्वणा) सौ कीलोंवाली (वज्रेण) गदा से, इन्द्र अर्थात् शूरवीर राजा वा सेनापति (दोधतः) सज्जनों को कँपानेवाले (वृत्रस्य) दुष्ट शत्रु का(शिरः) सिर (वि बिभेद) तोड़ देता है, वैसे ही (वृष्णिना) सुखवर्षक, (शतपर्वणा) बहुतों का पालन करनेवाले (वज्रेण) दण्डसामर्थ्य से इन्द्र अर्थात् वीर परमेश्वर (दोधतः) कँपानेवाले(वृत्रस्य) पाप के (शिरः) सिर को अर्थात् प्रभाव को (वि बिभेद चित्) नष्ट-भ्रष्ट कर देता है ॥२॥
परमात्मा की उपासना से सब विघ्न और सब पाप वैसे ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे राजा या सेनापति के शस्त्रास्त्रों से सब शत्रु ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ नृपतेः सेनापतेर्वा दृष्टान्तेन परमात्मनो वीरकर्मोच्यते।
(वृष्णिना) गोलिकावर्षकेण भुशुण्ड्यायुधेन, (शतपर्वणा)शतकीलकेन (वज्रेण) गदाऽऽयुधेन च यथा इन्द्रः शूरो राजा सेनापतिर्वा (दोधतः) सज्जनान् कम्पयतः (वृत्रस्य) दुष्टशत्रोः (शिरः) मूर्धानम् (वि बिभेद) चित् विभिनत्ति खलु, तथैव (वृष्णिना) सुखवर्षकेण (शतपर्वणा) बहुपालनकर्त्रा(वज्रेण) दण्डसामर्थ्येन (इद्रः) वीरः परमेश्वरः (दोधतः) कम्पयतः (वृत्रस्य) पापस्य (शिरः) शिर उपलक्षितं प्रभावम्(वि बिभेद चित्) विभिनत्ति एव ॥२॥
परमात्मोपासनया सर्वे विघ्नाः सर्वाणि पापानि च तथैव नश्यन्ति यथा राज्ञः सेनापतेर्वा शस्त्रास्त्रैः सर्वे शत्रवः ॥२॥