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देवता: अग्निः ऋषि: विरूप आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

मा꣡ नो꣢ अग्ने महाध꣣ने꣡ परा꣢꣯ वर्ग्भार꣣भृ꣡द्य꣢था । सं꣣व꣢र्ग꣣ꣳ स꣢ꣳ र꣣यिं꣡ ज꣢य ॥१६५०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

मा नो अग्ने महाधने परा वर्ग्भारभृद्यथा । संवर्गꣳ सꣳ रयिं जय ॥१६५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा꣢ । नः꣣ । अग्ने । महाधने꣢ । म꣣हा । धने꣢ । प꣡रा꣢꣯ । व꣣र्क् । भारभृ꣢त् । भा꣣र । भृ꣢त् । य꣣था । संव꣡र्ग꣢म् । स꣣म् । व꣡र्ग꣢꣯म् । सम् । र꣣यि꣢म् । ज꣢य ॥१६५०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1650 | (कौथोम) 8 » 1 » 12 » 3 | (रानायाणीय) 17 » 4 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर उन्हीं से प्रार्थना है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन्, राजन् वा योगिराज ! (महाधने) जीवन-सङ्ग्राम में आप (नः) हमें (मा परावर्ग्) बीच में ही मत छोड़ दीजिए, (भारभृत् यथा) जैसे जिसने रक्षा का भार लिया हुआ है, वह रक्षणीय को बीच में ही नहीं छोड़ देता, अथवा जैसे बोझ को दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए नियुक्त किया हुआ मनुष्य भार को बीच में ही नहीं छोड़ देता। साथ ही आप (संवर्गम्) जिससे पाप-ताप आदि कटते हैं, ऐसे (रयिम्) आध्यात्मिक धन को, अथवा (संवर्गम्)जिससे दीन जनों के दुःख कटते हैं, ऐसे (रयिम्) भौतिक धन को (संजय) प्राप्त कराइये ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जो परमात्मा वा योगिराज की शरण में जाते हैं, उन्हें वह बीच में ही न छोड़कर देवासुरसङ्ग्राम में विजयी करता है। वैसे ही राजा को भी चाहिए कि प्रजाजनों द्वारा प्रारम्भ किये गये महान् कार्यों में उन्हें बीच में ही न छोड़कर धन आदि से उनकी सहायता करके उन्हें सफलता तक पहुँचाये ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि त एव प्रार्थ्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन् राजन् योगिराड् वा ! (महाधने) जीवनसंग्रामे। [महाधन इति संग्रामनामसु पठितम्। निघं० २।१७।] त्वम् (नः) अस्मान् (मा परावर्ग्) मध्य एव मा परित्याक्षीः। [वृजी वर्जने रुधादिः, लोडर्थे लुङि परावर्जीः इति प्राप्ते छान्दसं रूपम्।] (भारभृत् यथा) यथा गृहीतरक्षाभारो जनः रक्ष्यं मध्ये न परित्यजति, यद्वा यथा भारस्य स्थानान्तरप्रापणाय नियुक्तो जनो भारं मध्ये न परित्यजति। किञ्च, त्वम् (संवर्गम्) संवृज्यन्ते पापतापादयो येन तादृशम् (रयिम्) अध्यात्मं धनम् यद्वा (संवर्गम्) संवृज्यन्ते दीनजनानां दुःखानि येन तादृशम् (रयिम्) भौतिकं धनम्(संजय) संप्रापय ॥३॥

भावार्थभाषाः -

ये परमात्मानं योगिराजं वा शरणं प्रपद्यन्ते तान् स मध्य एवाऽपरित्यज्य देवासुरसंग्रामे विजेतॄन् करोति। तथैव नृपतिरपि प्रजाजनान् प्रारब्धेषु महाकार्येषु मध्य एवाऽपरित्यज्य धनादिना तेषां साहाय्यं कृत्वा तान् सफलतां प्रापयेत् ॥३॥