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देवता: अग्निः ऋषि: विरूप आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

न꣡म꣢स्ते अग्न꣣ ओ꣡ज꣢से गृ꣣ण꣡न्ति꣢ देव कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मै꣢र꣣मि꣡त्र꣢मर्दय ॥१६४८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

नमस्ते अग्न ओजसे गृणन्ति देव कृष्टयः । अमैरमित्रमर्दय ॥१६४८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न꣡मः꣢꣯ । ते꣣ । अग्ने । ओ꣡ज꣢꣯से । गृ꣣ण꣡न्ति꣢ । दे꣣व । कृष्ट꣡यः꣢ । अ꣡मैः꣢꣯ । अ꣣मि꣡त्र꣢म् । अ꣣ । मि꣡त्र꣢꣯म् । अ꣣र्द꣡य ॥१६४८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1648 | (कौथोम) 8 » 1 » 12 » 1 | (रानायाणीय) 17 » 4 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ११ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ परमात्मा, राजा और योगिराज को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (देव) दान आदि गुणों से युक्त (अग्ने) अग्रनायक परमात्मन्,राजन् वा योगिराज ! (ते ओजसे) तुम्हारे बल और प्रताप के लिए(कृष्टयः) मनुष्य (नमः गृणन्ति) नमस्कार करते हैं अर्थात् तुम्हारे बल और प्रताप की प्रशंसा करते हैं। तुम (अमैः) अपने बलों से(अमित्रम्) योग-मार्ग वा जीवन-मार्ग में आते हुए शत्रु को (अर्दय) पीड़ित कर डालो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पग-पग पर हमारे निर्धारित लक्ष्य में जो विघ्न आते हैं, वे परमेश्वर की प्रेरणा से, राजा की सहायता से और योग-प्रशिक्षक के योग्य प्रशिक्षण से सरलतापूर्वक दूर किये जा सकते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ११ क्रमाङ्के परमात्मानं राजानं च सम्बोधिता। अत्र परमात्मा नृपतिः योगिराट् च सम्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (देव) दानादिगुणयुक्त (अग्ने) अग्रणीः परमात्मन् नृपते योगिराड् वा ! (ते ओजसे) तव बलाय प्रतापाय च(कृष्टयः) मनुष्याः (नमः गृणन्ति) नमः उच्चारयन्ति, तव बलं प्रतापं च प्रशंसन्तीत्यर्थः। त्वम् (अमैः) स्वकीयैः बलैः(अमित्रम्) योगमार्गे जीवनमार्गे वा समागच्छन्तं शत्रुम्(अर्दय) पीडय ॥१॥

भावार्थभाषाः -

पदे पदेऽस्माकं निर्धारिते लक्ष्ये ये विघ्ना आगच्छन्ति ते परमेश्वरस्य प्रेरणया नृपतेः साहाय्येन योगप्रशिक्षकस्य च समुचितेन प्रशिक्षणेन सरलतयैव दूरीकर्तुं शक्यन्ते ॥१॥