त्वां꣡ विष्णु꣢꣯र्बृ꣣ह꣡न्क्षयो꣢꣯ मि꣣त्रो꣡ गृ꣢णाति꣣ व꣡रु꣢णः । त्वा꣡ꣳ शर्धो꣢꣯ मद꣣त्य꣢नु꣣ मा꣡रु꣢तम् ॥१६४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वां विष्णुर्बृहन्क्षयो मित्रो गृणाति वरुणः । त्वाꣳ शर्धो मदत्यनु मारुतम् ॥१६४७॥
त्वा꣢म् । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । बृ꣡ह꣢न् । क्ष꣡यः꣢꣯ । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । गृ꣣णाति । व꣡रु꣢꣯णः । त्वाम् । श꣡र्धः꣢꣯ । म꣣दति । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣡रु꣢꣯तम् ॥१६४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
हे इन्द्र ! हे परम सम्राट् जगदीश ! (त्वाम्) आप महाबली की (विष्णुः) किरणों से व्याप्त सूर्य (बृहन् क्षयः) विस्तीर्ण अन्तरिक्षरूप घर, (मित्रः) वायु और (वरुणः) अग्नि(गृणाति) स्तुति कर रहे हैं। (मारुतं शर्धः) मानसून पवनों की सेना भी (त्वाम् अनु) आपकी ही अनुकूलता होने पर(मदति) हर्ष को प्राप्त करती है ॥३॥
संसार में जो कोई भी पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हैं, वे सभी परमेश्वर से ही शक्ति पाते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जीवात्मा और परमात्मा के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सत्रहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः स एव विषय उच्यते।
हे इन्द्र ! हे परमसम्राट् जगदीश ! (त्वाम्) महाबलम् (विष्णुः) रश्मिभिर्व्यापनशीलः सूर्यः (बृहन् क्षयः) विस्तीर्णम् अन्तरिक्षरूपं गृहम्, (मित्रः) वायुः। [अयं वै वायुर्मित्रो योऽयं पवते। श० ६।५।७।१४।] (वरुणः) अग्निश्च [यो वै वरुणः सोऽग्निः। श० ५।२।४।१३।] (गृणाति) स्तौति। (मारुतं शर्धः) मरुतां वृष्टिपवनानां सैन्यमपि (त्वाम् अनु) तवैवानुकूल्येन(मदति) हृष्यति ॥३॥
जगति ये केऽपि पदार्थाः स्वं स्वं कार्यं कुर्वन्ति ते सर्वेऽपि परमेश्वरादेव शक्तिं लभन्ते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मनः परमात्मनश्च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥