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यु꣣ध्म꣡ꣳ सन्त꣢꣯मन꣣र्वा꣡ण꣢ꣳ सोम꣣पा꣡मन꣢꣯पच्युतम् । न꣡र꣢मवा꣣र्य꣡क्र꣢तुम् ॥१६४३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

युध्मꣳ सन्तमनर्वाणꣳ सोमपामनपच्युतम् । नरमवार्यक्रतुम् ॥१६४३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु꣣ध्म꣢म् । स꣡न्त꣢꣯म् । अ꣣नर्वा꣡ण꣢म् । अ꣣न् । अर्वा꣡ण꣢म् । सो꣣मपा꣢म् । सो꣣म । पा꣢म् । अ꣡न꣢꣯पच्युतम् । अन् । अ꣣पच्युतम् । न꣡र꣢꣯म् । अ꣣वार्य꣡क्र꣢तुम् । अ꣡वा꣢꣯र्य । क्र꣣तुम् ॥१६४३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1643 | (कौथोम) 8 » 1 » 10 » 2 | (रानायाणीय) 17 » 3 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा के गुणों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(युध्मं सन्तम्) योद्धा होते हुए (अनर्वाणम्) किसी दूसरे पर आश्रित न रहनेवाले, (सोमपाम्) वीररस का पान करनेवाले, (अनपच्युतम्) विघ्नों से विचलित न होनेवाले (नरम्) नेता (अवार्यक्रतुम्) जिसके संकल्प वा कर्म को कोई रोक नहीं सकता, ऐसे परमात्मा वा जीवात्मा को, हे मानव ! तू (आ च्यावयसि) अपनी ओर झुका। [यहाँ आच्यावयसि’ पद पूर्व मन्त्र से लाया गया है] ॥२॥ यहाँ ‘युध्मं सन्तम् अनर्वाणम्’ जो योद्धा होते हुए भी आक्रमणकारी नहीं है—यह अर्थ प्रतीत होने से विरोध भासित होता है, भाष्य में दी गयी व्याख्या से उस विरोध का परिहार हो जाता है। अतः विरोधाभास अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर अधार्मिक, दूसरों को सतानेवाले लोगों से मानो युद्ध करके उन्हें पराजित और दण्डित करता है। देहधारी जीव भी वीरतापूर्वक दुर्विचारों और दुष्ट जनों से युद्ध करके अदम्य संकल्प-बल से सब शत्रुओं को जीतकर उन्नति की सबसे उपरली सीढ़ी पर पहुँचने में समर्थ हो जाता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मजीवात्मनोर्गुणान् वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(युध्मम् सन्तम्) योद्धारं सन्तम् (अनर्वाणम्) अप्रत्यृतमन्यस्मिन्। [युध्मः, युध सम्प्रहारे, ‘इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक्’, उ० १।१४५ इति मक् प्रत्ययः। अनर्वाऽप्रत्यृतोऽन्यस्मिन्। निरु० ६।२३।] (सोमपाम्) वीररसस्य पातारम्, (अनपच्युतम्) विघ्नेष्वविचलितम्, (नरम्) नेतारम्, (अवार्यक्रतुम्) न वारयितुं शक्यः क्रतुः संकल्पः कर्म वा यस्य तम् परमात्मानं जीवात्मानं वा, हे मानव ! त्वम् (आच्यावयसि) आवर्जय, स्वाभिमुखं कुरु। ‘आच्यावयसि’ इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥२॥ युध्मं योद्धारं सन्तम् अनर्वाणम् अनाक्रान्तारम् इति विरोधः, भाष्योक्तदिशा च परिहारः। अतो विरोधाभासोऽलङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वरोऽधार्मिकैः परपीडकैर्जनैर्युद्धमिव कृत्वा तान् पराजयते दण्डयति च। देहधारी जीवोऽपि वीरतया दुर्विचारैर्दुष्टजनैश्च युद्ध्वाऽदम्येन संकल्पबलेन सर्वान् शत्रून् विजित्योन्नतेश्चरमं सोपानमधिरोढुं क्षमते ॥२॥