वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें
देवता: अग्निः ऋषि: शुनःशेप आजीगर्तिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣢श्वं꣣ न꣢ त्वा꣣ वा꣡र꣢वन्तं व꣣न्द꣡ध्या꣢ अ꣣ग्निं꣡ नमो꣢꣯भिः । स꣣म्रा꣡ज꣢न्तमध्व꣣रा꣡णा꣢म् ॥१६३४॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

अश्वं न त्वा वारवन्तं वन्दध्या अग्निं नमोभिः । सम्राजन्तमध्वराणाम् ॥१६३४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡श्व꣢꣯म् । न । त्वा꣣ । वा꣡र꣢꣯वन्तम् । व꣣न्द꣡ध्यै꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । न꣡मो꣢꣯भिः । स꣣म्रा꣡ज꣢न्तम् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯न्तम् । अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म् ॥१६३४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1634 | (कौथोम) 8 » 1 » 7 » 1 | (रानायाणीय) 17 » 2 » 3 » 1


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में (१७ क्रमाङ्क पर) परमात्मा को सम्बोधन की गयी थी। यहाँ एक साथ परमात्मा और आचार्य दोनों को कह रहे हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वारवन्तम्) मलिनता-निवारक किरण रूप बालों से युक्त (अश्वं न) सूर्य के समान (वारवन्तम्) दोष-निवारण के सामर्थ्य से युक्त, (अध्वराणाम्) सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति आदि यज्ञों के वा शिक्षा-यज्ञों के (राजन्तम्) सम्राट् (अग्निं त्वाम्) आप नायक परमात्मा वा आचार्य को (नमोभिः) नमस्कारों से (वन्दध्यै) वन्दना करने के लिए, मैं बुलाता हूँ ॥१॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्य अपने किरण-समूह से भूमि पर स्थित मलिनता आदि को दूर करता है, वैसे ही परमेश्वर और आचार्य अपने स्वच्छ करने के सामर्थ्य से मनुष्यों के पाप, दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख आदि दूर करते हैं ॥१॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १७ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्र युगपत् परमात्माऽऽचार्यश्च प्रोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(वारवन्तम्) मालिन्यनिवारक रश्मिकेशयुक्तम् (अश्वं न) आदित्यमिव (वारवन्तम्) दोषनिवारणसामर्थ्ययुक्तम्, (अध्वराणाम्) सृष्ट्युत्पत्तिस्थित्यादियज्ञानां शिक्षायज्ञानां वा (राजन्तम्) सम्राजम् (अग्निं त्वाम्) नायकं परमात्मानम् आचार्यं वा त्वाम् (नमोभिः) नमस्कारैः (वन्दध्यै) वन्दितुम्, आह्वयामः इति शेषः। [अत्र ‘तुमर्थेसे०’ अ० ३।४।९ इति तुमर्थे कध्यै प्रत्ययः] ॥१॥२ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्यः स्वरश्मिजालेन भूमिष्ठं मलादिकमपनयति तथा परमेश्वर आचार्यश्च स्वशोधकसामर्थ्येन जनानां पापदुर्गुणदुर्व्यसनदुःखादिकं दूरीकुरुतः ॥१॥