तं꣡ गाथ꣢꣯या पुरा꣣ण्या꣡ पु꣢ना꣣न꣢म꣣꣬भ्य꣢꣯नूषत । उ꣣तो꣡ कृ꣢पन्त धी꣣त꣡यो꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ ना꣢म꣣ बि꣡भ्र꣢तीः ॥१६३३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तं गाथया पुराण्या पुनानमभ्यनूषत । उतो कृपन्त धीतयो देवानां नाम बिभ्रतीः ॥१६३३॥
तम् । गा꣡थ꣢꣯या । पु꣡राण्या꣢ । पु꣣नान꣢म् । अ꣣भि꣢ । अ꣣नूषत । उत꣢ । उ꣣ । कृपन्त । धीत꣡यः꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । ना꣡म꣢꣯ । बि꣡भ्र꣢꣯तीः ॥१६३३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति और उसके फल का वर्णन है।
(पुनानम्) पवित्र करनेवाले (तम्) उस सोम की अर्थात् शुभ गुण-कर्मों की प्रेरणा करनेवाले परमात्मा की, स्तोता लोग(पुराण्या) सनातन (गाथया) वेद-गाथा से (अभ्यनूषत) स्तुति करते हैं। (उत उ) और (नाम) परमात्मा के प्रति नमन को(बिभ्रतीः) धारण करती हुई (देवानाम्) विद्वानों की (धीतयः) बुद्धियाँ और क्रियाएँ (कृपन्त) शक्तिशालिनी हो जाती हैं ॥३॥
परमात्मा की स्तुति से स्तोताओं की वाणियाँ, प्रज्ञाएँ और क्रियाएँ बलवती होकर जीवन में उन्हें सफल करती हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेशस्तुतिं तत्फलं चाह।
(पुनानम्) पवित्रयन्तम् (तम्) सोमं शुभगुणप्रेरकं परमात्मानम्, स्तोतारः (पुराण्या) सनातन्या (गाथया) वेदवाचा। [गाथेति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (अभ्यनूषत)अभिष्टुवन्ति। (उत उ) अपि च (नाम) परमात्मानं प्रति नमनम् (बिभ्रतीः) धारयन्त्यः (देवानाम्) विदुषाम् (धीतयः)प्रज्ञाः क्रियाश्च (कृपन्त) शक्तिमत्यो जायन्ते। [कृपू सामर्थ्ये, भ्वादिः। ‘कृपो रो लः’ अ० ८।२।१८ इति न प्रवर्तते, छन्दसि सर्वेषां विधीनां वैकल्पिकत्वात्] ॥३॥
परमात्मस्तुत्या स्तोतॄणां वाचः प्रज्ञाः क्रियाश्च बलवत्यो भूत्वा जीवने तान् सफलयन्ति ॥३॥