त꣡म꣢स्य मर्जयामसि꣣ म꣢दो꣣ य꣡ इ꣢न्द्र꣣पा꣡त꣢मः । यं꣡ गाव꣢꣯ आ꣣स꣡भि꣢र्द꣣धुः꣢ पु꣣रा꣢ नू꣣नं꣡ च꣢ सू꣣र꣡यः꣢ ॥१६३२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तमस्य मर्जयामसि मदो य इन्द्रपातमः । यं गाव आसभिर्दधुः पुरा नूनं च सूरयः ॥१६३२॥
तम् । अ꣣स्य । मर्जयामसि । म꣡दः꣢꣯ । यः । इ꣣न्द्रपा꣡त꣢मः । इ꣣न्द्र । पा꣡त꣢꣯मः । यम् । गा꣡वः꣢꣯ । आ꣣स꣡भिः꣢ । द꣣धुः꣢ । पु꣣रा꣢ । नू꣣न꣢म् । च꣣ । सूर꣡यः꣢ ॥१६३२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में उपासना का विषय कहते हैं।
(अस्य) इस स्तोता मनुष्य का (यः) जो (इन्द्रपातमः) परमेश्वर द्वारा अतिशय पान करने योग्य (मदः) हर्षदायक भक्ति-रस है, (तम्) उसे, हम (मर्जयामसि) शुद्ध करते हैं, (यम्) जिसे(पुरा नूनं च) पहले और आज भी (सूरयः) विद्वान् (गावः)स्तोता लोग (आसभिः) मुखों से (दधुः) प्रकट करते रहे हैं ॥२॥
आडम्बर से रहित, निश्छल, शुद्ध उपासना ही जगदीश्वर को स्वीकार होती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोपासनाविषय उच्यते।
(अस्य) अस्य स्तोतुर्मनुष्यस्य (यः इन्द्रपातमः) इन्द्रेण परमेश्वरेण अतिशयेन पातव्यः (मदः) हर्षकरः भक्तिरसः अस्ति (तम् मर्जयामसि) शोधयामः, परिष्कुर्मः, (यम् पुरानूनं च) प्राक्काले अद्य चापि (सूरयः) विपश्चितः (गावः) स्तोतारः।[गौरिति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६।] (आसभिः) मुखैः(दधुः) प्रकटयन्ति ॥२॥
आडम्बररहिता निश्छला शुद्धैवोपासना जगदीश्वरस्य स्वीकृता भवति ॥२॥