वा꣢य꣣वि꣡न्द्र꣢श्च शु꣣ष्मि꣡णा꣢ स꣣र꣡थ꣢ꣳ शवसस्पती । नि꣣यु꣡त्व꣢न्ता न ऊ꣣त꣢य꣣ आ꣡ या꣢तं꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥१६३०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वायविन्द्रश्च शुष्मिणा सरथꣳ शवसस्पती । नियुत्वन्ता न ऊतय आ यातं सोमपीतये ॥१६३०॥
वा꣡यो꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣣ । शुष्मि꣡णा꣢ । स꣣र꣡थ꣢म् । स꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । श꣣वसः । पतीइ꣡ति꣢ । नि꣣यु꣡त्व꣢न्ता । नि꣣ । यु꣡त्व꣢꣯न्ता । नः꣣ । ऊत꣡ये꣢ । आ । या꣣तम् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥१६३०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।
हे (वायो) प्राण ! तू (इन्द्रः च) और जीवात्मा (शुष्मिणा) बलवान् (शवसः पती) बल के रक्षक और (नियुत्वन्ता) सदा कार्य-तत्पर रहते हुए (नः ऊतये) हमारी रक्षा के लिए(सरथम्) एक ही देह-रथ पर चढ़कर (सोमपीतये) शान्त रस के पानार्थ (आयातम्) आओ ॥३॥
जीवात्मा प्राण के ही साथ देह में आता है और उसी के साथ जीवन में सब कार्य सिद्ध करता हुआ योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
हे (वायो) प्राण ! त्वम् (इन्द्रः च) जीवात्मा च (शुष्मिणा) शुष्मिणौ बलवन्तौ, (शवसः पती) बलस्य पालकौ, (नियुत्वन्ता) सदा नियुक्तौ सन्तौ (नः ऊतये) अस्माकं रक्षणाय (सरथम्) एकमेव देहरथम् आरुह्य (सोमपीतये) शान्तरसपानाय (आयातम्) आगच्छतम् ॥३॥२
जीवात्मा प्राणेनैव सहचरितो देहमागच्छति, तेनैव सहचरितश्च जीवने सर्वाणि कार्याणि साध्नुवन् योगाभ्यासेन शान्तिं प्राप्नोति ॥३॥