वा꣡यो꣢ शु꣣क्रो꣡ अ꣢यामि ते꣣ म꣢ध्वो꣣ अ꣢ग्रं꣣ दि꣡वि꣢ष्टिषु । आ꣡ या꣢हि꣣ सो꣡म꣢पीतये स्पा꣣र्हो꣡ दे꣢व नि꣣यु꣡त्व꣢ता ॥१६२८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वायो शुक्रो अयामि ते मध्वो अग्रं दिविष्टिषु । आ याहि सोमपीतये स्पार्हो देव नियुत्वता ॥१६२८॥
वा꣡यो꣢꣯ । शु꣣क्रः꣢ । अ꣣यामि । ते । म꣡ध्वः꣢꣯ । अ꣡ग्र꣢꣯म् । दि꣡वि꣢꣯ष्टिषु । आ । या꣣हि । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये । स्पार्हः꣢ । दे꣣व । नियु꣡त्व꣢ता । नि꣣ । यु꣡त्व꣢꣯ता ॥१६२८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में उपास्य-उपासक का आपस का सम्बन्ध वर्णित है।
हे (वायो) सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (दिविष्टिषु) विवेक-प्रकाश की प्राप्तियों के हो जाने पर (शुक्रः) पवित्र मैं (ते) आपके (मध्वः) आनन्द-रस के (अग्रम्) श्रेष्ठ भाग को (अयामि) पा रहा हूँ। हे (देवः) मोदमय ! (स्पार्हः) स्पृहणीय आप (सोमपीतये) मेरे श्रद्धा-रस के पानार्थ (नियुत्वता) नियुक्त रथ से जैसे कोई आता है, वैसे (आयाहि) आओ ॥१॥ यहाँ ‘नियुत्वता’ में लुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे उपासक परमेश्वर के आनन्द-रसों का प्यासा होता है, वैसे ही परमेश्वर भी उपासक के भक्ति-रसों का प्यासा होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादावुपास्योपासकयोः पारस्परिकं सम्बन्धमाह।
हे (वायो) सर्वान्तर्यामिन् जगदीश ! (दिविष्टिषु) विवेकप्रकाशप्राप्तिषु जातासु। [दिविष्टिषु दिव एषणेषु। निरु० ६।२२।] (शुक्रः) पवित्रः अहम् (ते) तव (मध्वः) आनन्दरसस्य (अग्रम्) श्रेष्ठभागम् (अयामि) प्राप्नोमि। हे (देव) मोदमय ! (स्पार्हः) स्पृहणीयः त्वम् (सोमपीतये) मम श्रद्धारसस्य पानाय (नियुत्वता) नियुक्तेन रथेन इव (आयाहि) आगच्छ ॥१॥२ ‘नियुत्वता’ इत्यत्र लुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥
यथोपासकः परमेश्वरस्यानन्दरसानां पिपासुर्भवति तथा परमेश्वरोऽप्युपासकस्य भक्तिरसानां पिपासुर्जायते ॥१॥