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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अत्रिर्भौमः छन्द: जगती स्वर: निषादः काण्ड:

वि꣣पश्चि꣢ते꣣ प꣡व꣢मानाय गायत म꣣ही꣡ न धारात्यन्धो꣢꣯ अर्षति । अ꣢हि꣣र्न꣢ जू꣣र्णा꣡मति꣢꣯ सर्पति꣣ त्व꣢च꣣म꣢त्यो꣣ न꣡ क्रीड꣢꣯न्नसर꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ ॥१६१५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

विपश्चिते पवमानाय गायत मही न धारात्यन्धो अर्षति । अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीडन्नसरद्वृषा हरिः ॥१६१५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि꣣पश्चि꣡ते꣢ । वि꣣पः । चि꣡ते꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानाय । गा꣣यत । मही꣢ । न । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣡न्धः꣢꣯ । अ꣣र्षति । अ꣡हिः꣢꣯ । न । जू꣣र्णा꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । स꣣र्पति । त्व꣡च꣢꣯म् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । क्री꣡ड꣢꣯न् । अ꣣सरत् । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ ॥१६१५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1615 | (कौथोम) 7 » 3 » 21 » 2 | (रानायाणीय) 16 » 4 » 5 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जीवात्मा का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मनुष्यो ! तुम (विपश्चिते) मेधावान्, (पवमानाय) मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि को पवित्र करनेवाले जीवात्मा के लिए (गायत) गाओ, उसके महत्त्व को वर्णित करो। वह (अन्धः) अन्धेरे को, तमोगुण को (अत्यर्षति) लाँघ जाता है, (मही न धारा) जैसे बड़ी जलधारा मार्ग में आयी हुई शिला आदि की बाधा को लाँघ जाती है। वह जीवात्मा (जूर्णाम्) पुरानी, बूढ़ी (त्वचम्) त्वचा को, त्वचा-युक्त शरीर को (अतिसर्पति) छोड़कर चला जाता है, (अहिः न) जैसे साँप (जूर्णाम्) पुरानी (त्वचम्) केंचुली को (अति सर्पति) छोड़कर चला जाता है। साथ ही (वृषा) बलवान्, (हरिः) शरीर-रथ का वाहक वह जीवात्मा (अत्यः न) रथ में जुड़े घोड़े के समान (क्रीडन्) क्रीड़ा करता हुआ (असरत्) शरीर-रथ को धारण किये हुए चलता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

न जाने कब जीव शरीर को छोड़कर चला जाए। इसलिए शीघ्र ही धर्म- कर्मों में मन लगाना चाहिए, नहीं तो पीछे पछतावा होगा ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जीवात्मानं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मानवाः ! यूयम् (विपश्चिते) मेधाविने, (पवमानाय) मनोबुद्धीन्द्रियादीनां पावका जीवात्मने (गायत) तन्महत्त्वं वर्णयत। सः (अन्धः) अन्धकारं, तमोगुणम् (अत्यर्षति) अतिपारयति। कथमिव ? (मही न धारा) महती जलधारा यथा मार्गे समागतां पाषाणादिबाधाम् अत्यर्षति अतिपारयति। स जीवात्मा (जूर्णाम्) जीर्णाम् (त्वचम्) चर्ममयीं तनूम् (अतिसर्पति) परित्यज्य गच्छति। कथमिव ? (अहिः न) सर्पः यथा (जूर्णाम्) जीर्णाम् (त्वचम्) कञ्चुलिकाम् (अतिसर्पति) परित्यज्य गच्छति। किञ्च, (वृषा) बलवान् (हरिः) शरीररथस्य वाहकः स जीवात्मा (अत्यः न) रथे नियुक्तः अश्वः इव (क्रीडन्) क्रीडां कुर्वन् (असरत्) शरीररथं वहन् चलति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

न जाने कदा जीवो देहं त्यक्त्वा गच्छेद्, अतः सद्य एव धर्मकर्मसु मनः कार्यं, नोचेत् पश्चात्तापो भविष्यति ॥२॥