गो꣡म꣢न्न इन्दो꣣ अ꣡श्व꣢वत्सु꣣तः꣡ सु꣢दक्ष धनिव । शु꣡चिं꣢ च꣣ व꣢र्ण꣣म꣢धि꣣ गो꣡षु꣢ धारय ॥१६११॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गोमन्न इन्दो अश्ववत्सुतः सुदक्ष धनिव । शुचिं च वर्णमधि गोषु धारय ॥१६११॥
गो꣡म꣢꣯त् । नः꣣ । इन्दो । अ꣡श्व꣢꣯वत् । सु꣣तः꣢ । सु꣣दक्ष । सु । दक्ष । धनिव । शु꣡चि꣢꣯म् । च꣣ । व꣡र्ण꣢꣯म् । अ꣡धि꣢꣯ । गो꣡षु꣢꣯ । धा꣣रय ॥१६११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५७४ क्रमाङ्क पर परमेश्वर, राजा और आचार्य को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ जीवात्मा और परमात्मा को सम्बोधन है।
हे (सुदक्ष) श्रेष्ठ बल से युक्त (इन्दो) तेजस्वी जीवात्मन् वा परमात्मन् ! (सुतः) शरीर में जन्मा वा अन्तरात्मा में प्रेरित तू(नः) हमारे लिए (गोमत्) गाय, पृथिवी आदि से युक्त तथा(अश्ववत्) घोड़े, आग, बिजली आदि से युक्त धन को(धनिव) प्राप्त करा। (गोषु च) और इन्द्रियों में (शुचिं वर्णम्) पवित्र सात्त्विक रूप को (अधिधारय) धारण करा ॥१॥
भली-भाँति उद्बोधन दिया हुआ मनुष्य का आत्मा और भली-भाँति आराधना किया हुआ परमात्मा समस्त ऐश्वर्य प्राप्त कराने और मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदियों में पवित्रता का सञ्चार करने के लिए समर्थ होते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७४ क्रमाङ्के परमेश्वरं राजानमाचार्यं च सम्बोधिता। अत्र जीवात्मा परमात्मा च सम्बोध्यते।
हे (सुदक्ष) सुबल (इन्दो) तेजोमय जीवात्मन् परमात्मन् वा ! (सुतः) शरीरे गृहीतजन्मा अन्तरात्मनि प्रेरितो वा त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (गोमत्) धेनुपृथिव्यादियुक्तम्, (अश्ववत्) तुरगवह्निविद्युदादियुक्तं च रयिं धनम् (धनिव) धन्व प्रापय।[धन्वतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४। धन्व इति प्राप्ते इकारागमश्छान्दसः।] (गोषु च) इन्द्रियेषु च (शुचिं वर्णम्) पवित्रं सात्त्विकं रूपम् (अधि धारय) अधि धेहि ॥१॥
प्रोद्बोधितो मनुष्यस्यात्मा समाराधितः परमात्मा च निखिलमैश्वर्यं प्रापयितुं मनोबुद्धीन्द्रियादिषु च पवित्रतां सञ्चारयितुमलं भवतः ॥१॥