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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ वृषभा सु꣣ते꣢ सु꣣त꣡ꣳ सृ꣢जामि पी꣣त꣡ये꣢ । तृ꣣म्पा꣡ व्य꣢श्नुही꣣ म꣡द꣢म् ॥१६१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभि त्वा वृषभा सुते सुतꣳ सृजामि पीतये । तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥१६१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । वृषभ । सुते꣢ । सु꣣त꣢म् । सृ꣣जामि । पीत꣡ये꣢ । तृ꣣म्प꣢ । वि । अ꣣श्नुहि । म꣡द꣢꣯म् ॥१६१॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 161 | (कौथोम) 2 » 2 » 2 » 7 | (रानायाणीय) 2 » 5 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य को सम्बोधन कर कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मा के पक्ष में। हे (वृषभ) सुखशान्ति की वर्षा करनेवाले परमात्मन् ! (सुते) इस उपासना-यज्ञ में (पीतये) आपके पीने अर्थात् स्वीकार करने के लिए (सुतम्) निष्पादित भक्तिरस को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) समर्पित करता हूँ, आप इससे (तृम्प) तृप्त हों। अपने भक्त को अपने प्रेम में डूबे हुए हृदयवाला देखकर (मदम्) आनन्द को (वि अश्नुहि) प्राप्त करें, जैसे पिता पुत्र को अपने प्रति श्रद्धालु देखकर प्रमुदित होता है ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। गुरुकुल में अपने बालक को आचार्य के हाथों में सौंपते हुए पिता कह रहा है—हे (वृषभ) ज्ञान-वर्षक आचार्यप्रवर ! (सुते) इस अध्ययन-अध्यापन रूप सत्र के प्रवृत्त होने पर (पीतये) विद्यारस के पान के लिए (सुतम्) अपने पुत्र को (त्वा अभि) आपके प्रति (सृजामि) छोड़ता हूँ अर्थात् आपके अधीन करता हूँ। आगे पुत्र को कहता है—हे पुत्र ! तू आचार्य के अधीन रहकर (तृम्प) ज्ञानरस से तृप्तिलाभ कर, (मदम्) आनन्दप्रद सदाचार को भी (वि अश्नुहि) प्राप्त कर, इस प्रकार आचार्य से विद्या की शिक्षा और व्रतपालन की शिक्षा ग्रहण करके विद्यास्नातक और व्रतस्नातक बन ॥७॥ इस मन्त्र में श्लेष और ‘सुते-सुतं’ में छेकानुप्रास अलङ्कार है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर भूमि पर मेघ-जल और उपासकों के हृदय में सुख-शान्ति की वर्षा करता है, वैसे ही आचार्य शिष्य के हृदय में विद्या और सदाचार को बरसाता है। अतः सबको परमेश्वर की उपासना और आचार्य की सेवा करनी चाहिए ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानमाचार्यञ्च सम्बोध्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे (वृषभ) सुखशान्तिवर्षणशील परमात्मन् ! (सुते) प्रवृत्तेऽस्मिन्नुपासनायज्ञे (पीतये) त्वत्पानाय (सुतम्) अभिषुतं भक्तिरसम् (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (सृजामि) समर्पयामि। त्वमेतेन (तृम्प) तृप्तिं लभस्व। तृम्प तृप्तौ। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इति दीर्घः। त्वद्भक्तं त्वत्प्रेमपरिप्लुतहृदयं वीक्ष्य (मदम्) आनन्दम् (वि अश्नुहि) प्राप्नुहि। यथा पिता पुत्रं स्वं प्रति श्रद्धालुं वीक्ष्य प्रमोदते तद्वदित्याशयः। संहितायां वृषभा इत्यत्र व्यश्नुही इत्यत्र च अन्येषामपि दृश्यते। अ–० ६।३।१३७ इति दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—आचार्यपरः। गुरुकुले बालकम् आचार्यहस्तयोः समर्पयन् पिता (ब्रूते)—हे (वृषभ) ज्ञानवर्षक आचार्य ! (सुते) प्रवृत्तेऽस्मिन् अध्ययनाध्यापनसत्रे (पीतये) विद्यारसस्य पानाय (सुतम्) स्वकीयं पुत्रम् (त्वा अभि) त्वां प्रति (सृजामि) विसृजामि, त्वदधीनं करोमीत्यर्थः। अथ बालकं प्रत्याह—हे सुत ! त्वम् आचार्याधीनो भूत्वा (तृम्प) ज्ञानरसपानेन तृप्तिं लभस्व, (मदम्) आनन्दप्रदं सदाचारं चापि (वि अश्नुहि) प्राप्नुहि। आचार्यस्य सकाशाद् विद्याशिक्षां व्रतशिक्षां च गृहीत्वा विद्यास्नातको व्रतस्नातकश्च भवेत्यर्थः ॥७॥ अत्र श्लेषः, सुते-सुतं इत्यत्र च छेकानुप्रासोऽलङ्कारः ॥७॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरः पृथिव्यां मेघजलमुपासकानां हृदये च सुखशान्तिं वर्षति, तथैवाचार्यः शिष्यस्य हृदये विद्यां सदाचारं च वर्षति। अतः सर्वे परमेश्वरस्योपासनामाचार्यस्य सेवां च कुर्वन्तु ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।४५।२२, अथ० २०।२२।१, साम० ७३१।