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इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा पुरूवसो꣣ गि꣡रो꣢ वर्धन्तु꣣ या꣡ मम꣢꣯ । पा꣣वक꣡व꣢र्णाः꣣ शु꣡च꣢यो विप꣣श्चि꣢तो꣣ऽभि꣡ स्तोमै꣢꣯रनूषत ॥१६०७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इमा उ त्वा पुरूवसो गिरो वर्धन्तु या मम । पावकवर्णाः शुचयो विपश्चितोऽभि स्तोमैरनूषत ॥१६०७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । पुरूवसो । पुरु । वसो । गि꣡रः꣢꣯ । व꣣र्धन्तु । याः꣢ । म꣡म꣢꣯ । पा꣣वक꣡व꣢र्णाः । पा꣣व꣢क । व꣣र्णाः । शु꣡च꣢꣯यः । वि꣣पश्चि꣡तः꣢ । वि꣣पः । चि꣡तः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । अ꣣नूषत ॥१६०७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1607 | (कौथोम) 7 » 3 » 18 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 4 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २५० क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ एक साथ परमात्मा और आचार्य दोनों को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पुरूवसो) बहुत ऐश्वर्य से युक्त परमात्मन् वा बहुत विद्याधन से सम्पन्न आचार्य ! (इमाः उ) ये (याः मम गिरः) जो मेरी वाणियाँ हैं, वे (त्वा) आपको (वर्धन्तु) बढ़ायें अर्थात् आपकी महिमा को प्रकाशित करें। (पावकवर्णाः) अग्नि के समान उज्ज्वल वर्णवाले, तेजस्वी, (शुचयः) पवित्र (विपश्चितः) विद्वान् लोग (स्तोमैः) स्तोत्रों से, आपकी (अभ्यनूषत) स्तुति कर रहे हैं ॥१॥ यहाँ ‘पावकवर्णाः’ में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर वेदज्ञान के प्रदान द्वारा वैसे ही आचार्य वेदादि शास्त्रों के शिक्षण द्वारा सबका उपकार करता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २५० क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्र युगपत् परमात्मानमाचार्यं चाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (पुरूवसो) बह्वैश्वर्य परमात्मन्, बहुविद्याधनसम्पन्न आचार्य वा ! (इमाः उ) एताः खलु (याः मम गिरः) या मदीया वाचः सन्ति ताः (त्वा) त्वाम् (वर्धन्तु) वर्धयन्तु, तव महिमानं प्रकाशयन्तामित्यर्थः। (पावकवर्णाः) अग्निवर्णाः, अग्निवत् तेजस्विनः, (शुचयः) पवित्राः (विपश्चितः) विद्वांसः (स्तोमैः) स्तोत्रैः त्वाम् परमात्मानम् आचार्यं वा (अभ्यनूषत) अभिस्तुवन्ति ॥१॥२ पावकवर्णाः इत्यत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरो वेदज्ञानप्रदानेन तथाचार्यो वेदादिशास्त्राणां शिक्षणेन सर्वानुपकरोति ॥१॥