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अ꣣भ्या꣢र꣣मि꣡दद्र꣢꣯यो꣣ नि꣡षि꣢क्तं꣣ पु꣡ष्क꣢रे꣣ म꣡धु꣢ । अ꣣व꣡ट꣢स्य वि꣣स꣡र्ज꣢ने ॥१६०३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभ्यारमिदद्रयो निषिक्तं पुष्करे मधु । अवटस्य विसर्जने ॥१६०३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भ्या꣡र꣢म् । अ꣣भि । आ꣡र꣢꣯म् । इत् । अ꣡द्र꣢꣯यः । अ । द्र꣣यः । नि꣡षि꣢꣯क्तम् । नि । सि꣣क्तम् । पु꣡ष्क꣢꣯रे । म꣡धु꣢꣯ । अ꣣वट꣡स्य꣢ । वि꣣स꣡र्ज꣢ने । वि꣣ । स꣡र्ज꣢꣯ने ॥१६०३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1603 | (कौथोम) 7 » 3 » 16 » 2 | (रानायाणीय) 16 » 3 » 6 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में वर्षा-वर्णन द्वारा परमात्मा की महिमा दर्शाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

अग्नि नामक परमात्मा की ही महिमा से (अद्रयः) बादल(अभ्यारम् इत्) आपस में टकराते हैं। तब (अवटस्य) मेघरूप जलभण्डार के (विसर्जने) बरसने पर (पुष्करे) भूमि के सरोवर में (मधु) मधुर वर्षा-जल (निषिक्तम्) सिंच जाता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जो यह भूमि पर स्थित जल सूर्य के ताप से अन्तरिक्ष में जाकर मेघ बनता है और फिर भूमि पर बरस जाता है, वह सब जगदीश्वर का ही कर्तृत्व है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ वृष्टिमुखेन परमात्मनो महिमानमाचष्टे।

पदार्थान्वयभाषाः -

अग्नेः परमात्मन एव महिम्ना (अद्रयः) मेघाः। [अद्रिरिति मेघनाम। निघं० १।१०।] (अभ्यारम् इत्) परस्परं संघट्टन्ते खलु। ततः (अवटस्य) मेघरूपस्य कूपस्य। [अवत इति कूपनाम। निघं० ३।२३।] (विसर्जने) वर्षणे सति (पुष्करे) भूमिष्ठे सरोवरे (मधु) मधुरं वृष्ट्युदकम् (निषिक्तम्) संसिक्तं जायते ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यदिदं भूमिष्ठमुदकं सूर्यतापेनान्तरिक्षं गत्वा मेघतां प्रतिपद्यते, पुनश्च पृथिव्यां वर्षति, तत्सर्वं जगदीश्वरस्यैव कर्तृत्वं विद्यते ॥२॥