पु꣣नाने꣢ त꣣꣬न्वा꣢꣯ मि꣣थः꣢꣫ स्वेन꣣ द꣡क्षे꣢ण राजथः । ऊ꣣ह्या꣡थे꣢ स꣣ना꣢दृ꣣त꣢म् ॥१५९७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पुनाने तन्वा मिथः स्वेन दक्षेण राजथः । ऊह्याथे सनादृतम् ॥१५९७॥
पुनाने꣡इति꣢ । त꣣न्वा꣢ । मि꣣थः꣢ । स्वे꣡न꣢꣯ । द꣡क्षे꣢꣯ण । रा꣣जथः । ऊ꣢ह्याथे꣣इ꣡ति꣢ । स꣣ना꣢त् । ऋ꣣त꣢म् ॥१५९७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में आत्मा और बुद्धि के आपस के उपकार का वर्णन है।
(तन्वा) स्वरूप से (मिथः) एक-दूसरे को (पुनाने) पवित्र करते हुए तुम दोनों आत्मा और बुद्धि (स्वेन) अपने (दक्षेण) बल से (राजथः) शोभित होते हो, (सनात्) चिरकाल से (ऋतम्) सत्य को (ऊह्याथे) चरितार्थ करते हो ॥२॥
आत्मा और बुद्धि आकाश और भूमि के समान एक-दूसरे के उपकारक होते हुए मनुष्य को अभ्युदय और निःश्रेयस के मार्ग पर भली-भाँति चलाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथात्मबुद्ध्योः परस्परोपकर्तृत्वमाह।
(तन्वा) स्वरूपेण (मिथः) अन्योन्यम् (पुनाने) पवित्रीकुर्वाणे युवाम् आत्मबुद्धी (स्वेन) स्वकीयेन (दक्षेण) बलेन (राजथः) शोभेथे, (सनात्) चिरात् (ऋतम्) सत्यम् (ऊह्याथे) वहथः ॥२॥२
आत्मा बुद्धिश्च द्यावापृथिवीवत् परस्परमुपकुर्वन्तौ मनुष्यमभ्युदयमार्गे निःश्रेयसमार्गे च सम्यग् वहतः ॥२॥