प्र꣢ वां꣣ म꣢हि꣣ द्य꣡वी꣢ अ꣣भ्यु꣡प꣢स्तुतिं भरामहे । शु꣢ची꣣ उ꣢प꣣ प्र꣡श꣢स्तये ॥१५९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र वां महि द्यवी अभ्युपस्तुतिं भरामहे । शुची उप प्रशस्तये ॥१५९६॥
प्र꣢ । वा꣣म् । म꣡हि꣢꣯ । द्यवी꣢꣯इ꣡ति꣢ । अ꣣भि꣢ । उ꣡प꣢꣯स्तुतिम् । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣तिम् । भरामहे । शु꣢ची꣢꣯इति । उ꣡प꣢꣯ । प्र꣡श꣢꣯स्तये । प्र । श꣣स्तये ॥१५९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब द्यावापृथिवी के नाम से आत्मा और बुद्धि का विषय कहते हैं।
हे द्यावापृथिवी ! हे आत्मा और बुद्धि ! हम (प्रशस्तये) प्रशस्ति करने के लिए (द्यवी) तेजस्वी, (शुची) पवित्र (वाम् अभि) तुम दोनों के प्रति (महि) बहुत अधिक (उपस्तुतिम्) तुम्हारे गुण-कर्मों की प्रशंसा (प्र उप भरामहे) करते हैं ॥१॥
आत्मा और बुद्धि दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। उनसे उपकार सबको लेना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ द्यावापृथिवीनाम्नाऽऽत्मबुद्धिविषय उच्यते।
हे द्यावापृथिवी ! हे आत्मबुद्धी ! वयम् (प्रशस्तये) प्रशस्तिं प्राप्तुम् (द्यवी) द्योतमाने, (शुची) पवित्रे (वाम् अभि) युवां प्रति (महि) बहु (उपस्तुतिम्) गुणकर्मप्रशंसाम् (प्र उप भरामहे) प्रकर्षेण उपाहरामः ॥१॥२
आत्मा बुद्धिश्चोभावपि स्वं स्वं महत्त्वं धारयतः। ताभ्यामुपकारः सर्वैर्ग्राह्यः ॥१॥