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देवता: द्यावापृथिव्यौ ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प्र꣢ वां꣣ म꣢हि꣣ द्य꣡वी꣢ अ꣣भ्यु꣡प꣢स्तुतिं भरामहे । शु꣢ची꣣ उ꣢प꣣ प्र꣡श꣢स्तये ॥१५९६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र वां महि द्यवी अभ्युपस्तुतिं भरामहे । शुची उप प्रशस्तये ॥१५९६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । वा꣣म् । म꣡हि꣢꣯ । द्यवी꣢꣯इ꣡ति꣢ । अ꣣भि꣢ । उ꣡प꣢꣯स्तुतिम् । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣तिम् । भरामहे । शु꣢ची꣢꣯इति । उ꣡प꣢꣯ । प्र꣡श꣢꣯स्तये । प्र । श꣣स्तये ॥१५९६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1596 | (कौथोम) 7 » 3 » 14 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 3 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब द्यावापृथिवी के नाम से आत्मा और बुद्धि का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे द्यावापृथिवी ! हे आत्मा और बुद्धि ! हम (प्रशस्तये) प्रशस्ति करने के लिए (द्यवी) तेजस्वी, (शुची) पवित्र (वाम् अभि) तुम दोनों के प्रति (महि) बहुत अधिक (उपस्तुतिम्) तुम्हारे गुण-कर्मों की प्रशंसा (प्र उप भरामहे) करते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

आत्मा और बुद्धि दोनों ही अपना-अपना महत्त्व रखते हैं। उनसे उपकार सबको लेना चाहिए ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ द्यावापृथिवीनाम्नाऽऽत्मबुद्धिविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे द्यावापृथिवी ! हे आत्मबुद्धी ! वयम् (प्रशस्तये) प्रशस्तिं प्राप्तुम् (द्यवी) द्योतमाने, (शुची) पवित्रे (वाम् अभि) युवां प्रति (महि) बहु (उपस्तुतिम्) गुणकर्मप्रशंसाम् (प्र उप भरामहे) प्रकर्षेण उपाहरामः ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

आत्मा बुद्धिश्चोभावपि स्वं स्वं महत्त्वं धारयतः। ताभ्यामुपकारः सर्वैर्ग्राह्यः ॥१॥