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त्व꣢ꣳ ह꣣ त्य꣡त्प꣢णी꣣नां꣡ वि꣢दो꣣ व꣢सु꣣ सं꣢ मा꣣तृ꣡भि꣢र्मर्जयसि꣣ स्व꣡ आ दम꣢꣯ ऋ꣣त꣡स्य꣢ धी꣣ति꣢भि꣣र्द꣡मे꣢ । प꣣राव꣢तो꣣ न꣢꣫ साम꣣ त꣢꣫द्यत्रा꣣ र꣡ण꣢न्ति धी꣣त꣡यः꣢ । त्रि꣣धा꣡तु꣢भि꣣र꣡रु꣢षीभि꣣र्व꣡यो꣢ दधे꣣ रो꣡च꣢मानो꣣ व꣡यो꣢ दधे ॥१५९२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

त्वꣳ ह त्यत्पणीनां विदो वसु सं मातृभिर्मर्जयसि स्व आ दम ऋतस्य धीतिभिर्दमे । परावतो न साम तद्यत्रा रणन्ति धीतयः । त्रिधातुभिररुषीभिर्वयो दधे रोचमानो वयो दधे ॥१५९२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्व꣢म् । ह꣣ । त्य꣢त् । प꣣णीना꣢म् । वि꣣दः । व꣡सु꣢꣯ । सम् । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । म꣣र्जयसि । स्वे꣢ । आ । द꣡मे꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । धी꣣ति꣡भिः꣢ । द꣡मे꣢꣯ । प꣣राव꣡तः꣢ । न । सा꣡म꣢꣯ । तत् । य꣡त्र꣢꣯ । र꣡ण꣢꣯न्ति । धी꣣त꣡यः꣢ । त्रि꣣धा꣡तु꣢भिः । त्रि꣣ । धा꣡तु꣢꣯भिः । अ꣡रु꣢꣯षीभिः । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे । रो꣡च꣢मानः । व꣡यः꣢꣯ । द꣣धे ॥१५९२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1592 | (कौथोम) 7 » 3 » 10 » 3 | (रानायाणीय) 16 » 2 » 5 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में उपासक की उपलब्धि का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम अर्थात् शान्त उपासक ! (त्वं ह) तू (पणीनां त्यत् वसु) दुर्विचाररूप दस्युओं से चुरा लिये गए सद्विचाररूप धन को (विदः) फिर प्राप्त कर लेता है। (मातृभिः) मातारूप वेद-वाणियों से स्वयं को (संमर्जयसि) संशोधित वा अलङ्कृत कर लेता है। (स्वे) अपने (दमे) इन्द्रियों के दमनरूप कार्य में (आ) तत्पर रहता है। (ऋतस्य) सत्य की (धीतिभिः) धारणाओं के साथ (दमे) घर में (आ) आता है, (यत्र) जिस घर में (परावतः) दूर देश से (न) जैसे (साम) साम का संगीत सुनाई देता है, वैसे ही (धीतयः) स्तुति-वाणियाँ (रणन्ति) शब्दायमान होती हैं। वह उपासक (त्रिधातुभिः) पूर्व-पूर्व जिनमें बलवान् हैं, ऐसे सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों से युक्त (अरुषीभिः) चमकीली दीप्तियों से (वयः) आनन्द-रस को (दधे) अपने अन्दर धारण करता है और (रोचमानः) तेजस्वी होता हुआ (वयः) जीवन को (दधे) धारण करता है ॥३॥ यहाँ यमक और उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर का उपासक अन्तःप्रकाश, जितेन्द्रियता और आनन्द-रस प्राप्त करके चिरकाल तक प्रसन्न रहता है ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राजा, आचार्य, आत्म-प्रबोधन और उपासक की उपलब्धि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सोलहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथोपासकस्योपलब्धिं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम शान्त उपासक ! (त्वं ह) त्वं खलु (पणीनां त्यत् वसु) दुर्विचाररूपैः पणिभिः दस्युभिः अपहृतं तत् सद्विचाररूपं धनम् (विदः) अविदः पुनः प्राप्नोषि। (मातृभिः) मातृरूपाभिः वेदवाग्भिः स्वात्मानम् (संमर्जयसि) संशोधयसि समलङ्करोषि वा। (स्वे) स्वकीये (दमे) इन्द्रियदमनरूपे कार्ये (आ) आतिष्ठसि। (ऋतस्य) सत्यस्य (धीतिभिः) धारणाभिः सह (दमे) गृहे (आ) आगच्छसि, (यत्र) यस्मिन् गृहे (परावतः) दूरदेशात् (न) यथा (साम) सामसंगीतं श्रूयते, तथैव (धीतयः) स्तुतिवाचः (रणन्ति) शब्दायन्ते। असौ उपासकः (त्रिधातुभिः) पूर्वं पूर्वं बलीयांसः सत्त्वरजस्तमोरूपा धातवो गुणाः यासु ताभिः (अरुषीभिः) आरोचमानाभिः दीप्तिभिः (वयः) आनन्दरसम् (दधे) स्वात्मनि धत्ते, (रोचमानः) तेजोभिर्भासमानः (वयः) जीवनम् (दधे) धत्ते ॥३॥ अत्र यमकम् उपमालङ्कारश्च ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरस्योपासकोऽन्तःप्रकाशं जितेन्द्रियत्वमानन्दरसं च प्राप्य चिरं मोदते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य स्वात्मप्रबोधनस्योपासकस्योपलब्धेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥