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यो꣢꣫ विश्वा꣣ द꣡य꣢ते꣣ व꣢सु꣣ हो꣡ता꣢ म꣣न्द्रो꣡ जना꣢꣯नाम् । म꣢धो꣣र्न꣡ पात्रा꣢꣯ प्रथ꣣मा꣡न्य꣢स्मै꣣ प्र꣡ स्तोमा꣢꣯ यन्त्व꣣ग्न꣡ये꣢ ॥१५८३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यो विश्वा दयते वसु होता मन्द्रो जनानाम् । मधोर्न पात्रा प्रथमान्यस्मै प्र स्तोमा यन्त्वग्नये ॥१५८३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । द꣡य꣢꣯ते । व꣡सु꣢꣯ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्रः꣢ । ज꣡ना꣢꣯नाम् । म꣡धोः꣢꣯ । न । पा꣡त्रा꣢꣯ । प्र꣣थमा꣡नि꣢ । अ꣣स्मै । प्र꣢ । स्तो꣡माः꣢꣯ । य꣣न्तु । अग्न꣡ये꣢ ॥१५८३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1583 | (कौथोम) 7 » 3 » 5 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 1 » 5 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४४ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की जा चुकी है। यहाँ एक-साथ परमात्मा और आचार्य दोनों को लक्ष्य करके कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(होता) ब्रह्माण्ड-यज्ञ वा शिक्षा-यज्ञ का कर्ता, (जनानाम्) मनुष्यों को (मन्द्रः) आनन्द देनेवाला (यः) जो परमात्मा वा आचार्य (विश्वा वसु) सब आध्यात्मिक धनों को वा विद्या-धनों को (ददाति) देता है, (अस्मै अग्नये) ऐसे अग्रनायक परमात्मा वा आचार्य के लिए (प्रथमानि) श्रेष्ठ (मधोः पात्रा न) मधुपूर्ण पात्रों के समान (स्तोमाः) धन्यवाद के वचन (प्र यन्तु) पहुँचें ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर पुरुषार्थी को भौतिक और आध्यात्मिक धन प्रदान करता है, वैसे ही आचार्य शिष्यों को विद्या-धन देता है, इसलिए वे दोनों सबके द्वारा अभिनन्दन करने योग्य हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४४ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र युगपत् परमात्मानमाचार्यं चोद्दिश्य ब्रूते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(होता) ब्रह्माण्डयज्ञस्य शिक्षायज्ञस्य वा सम्पादकः, (जनानाम्) मनुष्याणाम् (मन्द्रः) आनन्दजनकः (यः) परमात्मा आचार्यो वा (विश्वा वसु) विश्वानि वसूनि सर्वाणि आध्यात्मिकानि धनानि विद्याधनानि वा (दयते) ददाति। (अस्मै अग्नये) एतादृशाय अग्रनायकाय परमात्मने आचार्याय वा (प्रथमानि) श्रेष्ठानि (मधोः पात्रा न) मधुना पूर्णानि पात्राणि इव (स्तोमाः) धन्यवादवचनानि (प्र यन्तु) प्र गच्छन्तु ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमेश्वरः पुरुषार्थिने भौतिकान्याध्यात्मिकानि च धनानि ददाति तथाऽऽचार्यः शिष्येभ्यो विद्याधनानि प्रयच्छतीति तौ सर्वैरभिनन्दनीयौ ॥१॥