प꣣दं꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ मी꣣ढु꣡षोऽना꣢꣯धृष्टाभिरू꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣡ सूर्य꣢꣯ इवोप꣣दृ꣢क् ॥१५७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पदं देवस्य मीढुषोऽनाधृष्टाभिरूतिभिः । भद्रा सूर्य इवोपदृक् ॥१५७२॥
प꣣द꣢म् । दे꣣व꣡स्य꣢ । मी꣣ढु꣡षः꣢ । अ꣡ना꣢꣯धृष्टाभिः । अन् । आ꣣धृष्टाभिः । ऊति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣢ । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । उपदृ꣢क् । उ꣣प । दृ꣢क् ॥१५७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की कृपा का विषय है।
(मीढ़ुषः) सुख को सींचनेवाले (देवस्य) प्रकाशक जगदीश्वर का (पदम्) प्राप्तव्य मोक्षपद (अनाधृष्टाभिः) अपराजित (ऊतिभिः) रक्षाओं से युक्त है और उसकी (उपदृक्) कृपादृष्टि (सूर्यः इव) सूर्य के समान (भद्रा) शुभ है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
परमात्मा की शरण में जाकर मनुष्य उसकी कभी क्षीण न हो सकनेवाली रक्षा को और अमृतमयी कृपादृष्टि को पा लेता है ॥३॥ इस खण्ड में यज्ञाग्नि और परमेश्वर के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पन्द्रहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ पन्द्रहवां अध्याय समाप्त ॥ सप्तम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरस्य कृपाविषयमाह।
(मीढुषः) सुखसेचकस्य (देवस्य) प्रकाशकस्य (अग्नेः) जगदीश्वरस्य (पदम्) प्राप्तव्यं मोक्षपदम् (अनाधृष्टाभिः) अदब्धाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः युक्तं वर्तते। किञ्च, तस्य (उपदृक्) कृपादृष्टिः (सूर्यः इव) आदित्यस्य (भद्रा) शुभा अस्ति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
परमात्मनः शरणं गत्वा मानवस्तस्याऽक्षय्यां रक्षाममृतमयीं कृपादृष्टिं च लभते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे यज्ञाग्निपरमेश्वरविषयोर्वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥