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प꣡न्या꣢ꣳसं जा꣣त꣡वे꣢दसं꣣ यो꣢ दे꣣व꣢ता꣣त्यु꣡द्य꣢ता । ह꣣व्या꣡न्यै꣢꣯रयद्दि꣣वि꣢ ॥१५६६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पन्याꣳसं जातवेदसं यो देवतात्युद्यता । हव्यान्यैरयद्दिवि ॥१५६६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡न्या꣢꣯ꣳसम् । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । यः꣢ । दे꣣व꣡ता꣢ति । उ꣡द्य꣢꣯ता । उत् । य꣣ता । हव्या꣡नि꣢ । ऐ꣡र꣢꣯यत् । दि꣣वि꣢ ॥१५६६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1566 | (कौथोम) 7 » 2 » 12 » 3 | (रानायाणीय) 15 » 4 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यज्ञाग्नि और अन्तरिक्ष का परस्पर विनिमय दर्शाया गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) जो यज्ञाग्नि (देवताति) यज्ञ में (उद्यता) डाली गयी (हव्यानि) हवियों को (दिवि) अन्तरिक्ष में (ऐरयत्) पहुँचा देता है, उस (पन्यांसम्) अतिशय आदान-प्रदान का व्यवहार करनेवाले अर्थात् हवि लेकर बदले में आकाश से वर्षा देनेवाले (जातवेदसम्) प्रकाशित यज्ञाग्नि की, मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ स्तुषे पद पहले से चला आ रहा है।] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

वर्षा के लिए अग्नि में डाली हुई आहुति अग्नि द्वारा अलग-अलग सूक्ष्म अवयवों में विभक्त होकर गरम वायु के साथ ऊपर आकाश में पहुँचती है। तब ऊपर स्थित पवनों में गति उत्पन्न हो जाती है, जिससे मेघस्थ जल-वाष्पों से जब शीतल पवन टकराते हैं, तब वर्षा होती है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ यज्ञाग्नेराकाशस्य च पारस्परिकं विनिमयं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः) यज्ञाग्निः (देवताति) देवतातौ यज्ञे। [देवताता इति यज्ञनामसु पठितम्। निघं० ३।१७।] (उद्यता) उद्यतानि (हव्यानि) हवींषि (दिवि) अन्तरिक्षे (ऐरयत्) प्रेरयति, तम् (पन्यांसम्) पनीयांसम्, अतिशयेन आदानप्रदानयोर्व्यवहर्तारम्, हव्यं दत्त्वा विनिमयेनाकाशाद् वृष्टिं गृह्णानम् इत्यर्थः। [पण व्यवहारे स्तुतौ च, तृजन्तादीयसुन्, ईकारलोपश्छान्दसः।] (जातवेदसम्) जातप्रकाशम् यज्ञाग्निम्, अहं (स्तुषे) स्तौमि। [अत्र स्तुषे इति पूर्वतोऽनुवृत्तम्] ॥३॥

भावार्थभाषाः -

वृष्ट्यर्थमग्नौ प्रास्ताहुतिरग्निना विच्छिन्ना तप्तवायुना सहोपरि गच्छति, तत ऊर्ध्वस्थेषु पवनेषु गतिरुत्पद्यते, येन मेघस्थैर्जलवाष्पैर्यदा शीताः पवनाः संघट्टन्ते तदा वृष्टिर्जायते ॥३॥