अ꣣भि꣡ प्रया꣢꣯ꣳसि꣣ वा꣡ह꣢सा दा꣣श्वा꣡ꣳ अ꣢श्नोति꣣ म꣡र्त्यः꣢ । क्ष꣡यं꣢ पाव꣣क꣡शो꣢चिषः ॥१५५७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि प्रयाꣳसि वाहसा दाश्वाꣳ अश्नोति मर्त्यः । क्षयं पावकशोचिषः ॥१५५७॥
अ꣣भि꣢ । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । वा꣡ह꣢꣯सा । दा꣣श्वा꣢न् । अ꣣श्नोति । म꣡र्त्यः꣢꣯ । क्ष꣡य꣢꣯म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषः । पा꣣वक꣢ । शो꣣चिषः ॥१५५७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमात्मा की स्तुति से क्या प्राप्त होता है।
(दाश्वान्) आत्मसमर्पण करनेवाला (मर्त्यः) मनुष्य (वाहसा) परमेश्वर के प्रति किये गए स्तोत्र से (प्रयांसि) आनन्द-रसों को (अभि अश्नोति) पा लेता है। साथ ही (पावक-शोचिषः) पवित्रकारी ज्योतिवाले उस परमेश्वर के (क्षयम्) मोक्षधाम को भी प्राप्त कर लेता है ॥२॥
मनुष्य को योग्य है कि तेजस्वी जगदीश्वर की स्तुति से स्वयं भी उसके गुणों को धारण करके अभ्युदय तथा निःश्रेयस प्राप्त करे ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मस्तुत्या किं प्राप्यत इत्याह।
(दाश्वान्) आत्मसमर्पकः (मर्त्यः) मनुष्यः (वाहसा) अग्निं परमेश्वरं प्रति कृतेन स्तोत्रेण। [वाहः अभिवहनस्तुतिम्। निरु० ४।१६।] (प्रयांसि) आनन्दरसान्। [प्रयः इति उदकनाम। निघं० १।१२।] (अभि अश्नोति) प्राप्नोति। किञ्च (पावकशोचिषः) पावकदीप्तेः तस्य परमेश्वरस्य (क्षयम्) निवासं मोक्षमिति यावत् अभ्यश्नोति लभते ॥२॥२
दीप्तिमतो जगदीश्वरस्य स्तुत्या स्वयमपि तद्गुणधारणेन मनुष्योऽभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्तुमर्हति ॥२॥