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देवता: अग्निः ऋषि: विश्वामित्रो गाथिनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡दा꣢भ्यः पुरए꣣ता꣢ वि꣣शा꣢म꣣ग्नि꣡र्मानु꣢꣯षीणाम् । तू꣢र्णी꣣ र꣢थः꣣ स꣢दा꣣ न꣡वः꣢ ॥१५५६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अदाभ्यः पुरएता विशामग्निर्मानुषीणाम् । तूर्णी रथः सदा नवः ॥१५५६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । पुरएता꣢ । पु꣣रः । एता꣢ । वि꣣शा꣢म् । अ꣣ग्निः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षीणाम् । तू꣡र्णिः꣢꣯ । र꣡थः꣢꣯ । स꣡दा꣣ । न꣡वः꣢꣯ ॥१५५६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1556 | (कौथोम) 7 » 2 » 9 » 1 | (रानायाणीय) 15 » 3 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में परमात्मा का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) जगन्नायक सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (अदाभ्यः) किसी से दबाया या पराजित न किया जा सकनेवाला और (मानुषीणां विशाम्) मानवी प्रजाओं के (पुर एता) आगे पहुँचनेवाला है। (रथः) इससे रचा हुआ मानव-शरीर रूप रथ (तूर्णिः) शीघ्रगामी और (सदा नवः) सदा स्तुतियोग्य होता है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर कैसा विलक्षण शिल्पकार है कि उससे रचा हुआ आत्मा से अधिष्ठित मानव-देह-रूप रथ चेतन होता हुआ स्वयं ही चलता है, स्वयं ही रुकता है और स्वयं ही कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक करता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ परमात्मानं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) जगन्नायकः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (अदाभ्यः) केनापि दब्धुं पराजेतुम् अशक्यः, (मानुषीणां विशाम्) मानवीनां प्रजानाम् (पुरएता) अग्रगन्ता च भवति। (रथः) एतेन रचितो मानवदेहरूपो (रथः तूर्णिः) सद्यो गन्ता, (सदा नवः) सदा स्तुत्यश्च वर्तते ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वरः खलु कीदृशो विलक्षणः शिल्पी यत्तेन रचित आत्माधिष्ठितो मानवदेहरूपो रथश्चेतनः सन् स्वयमेव याति स्वयमेव विरमति स्वयमेव च कर्तव्याकर्तव्यविवेकं कुरुते ॥१॥