अ꣣ग्नि꣢ꣳ सू꣣नु꣡ꣳ सह꣢꣯सो जा꣣त꣡वे꣢दसं दा꣣ना꣢य꣣ वा꣡र्या꣢णाम् । द्वि꣣ता꣢꣫ यो भूद꣣मृ꣢तो꣣ म꣢र्त्ये꣣ष्वा꣡ होता꣢꣯ म꣣न्द्र꣡त꣢मो वि꣣शि꣢ ॥१५५५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्निꣳ सूनुꣳ सहसो जातवेदसं दानाय वार्याणाम् । द्विता यो भूदमृतो मर्त्येष्वा होता मन्द्रतमो विशि ॥१५५५॥
अ꣣ग्नि꣢म् । सू꣣नु꣢म् । स꣡ह꣢꣯सः । जा꣣त꣡वे꣢दसम् । जा꣣त꣢ । वे꣣दसम् । दाना꣡य꣢ । वा꣡र्या꣢꣯णाम् । द्वि꣣ता꣢ । यः । भूत् । अ꣣मृ꣡तः꣢ । अ꣣ । मृ꣡तः꣢꣯ । म꣡र्त्ये꣢꣯षु । आ । हो꣡ता꣢꣯ । म꣣न्द्र꣡त꣢मः । वि꣣शि꣢ ॥१५५५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब परमेश्वर के गुणों का वर्णन है।
(सहसः सूनुम्) बल के प्रेरक, (जातवेदसम्) सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, ज्ञान और धन के उत्पादक, (अग्निम्) अग्रनायक जगदीश्वर की (वार्याणाम्) वरणीय सद्गुणों और श्रेष्ठ ऐश्वर्यों के (दानाय) दान के लिए, मैं स्तुति करता हूँ। (मर्त्येषु) मरणधर्मा प्राणियों के मध्य में (अमृतः) अमर और (विशि) मनुष्य-प्रजा में (मन्द्रतमः) अतिशय आनन्दप्रदाता, (होता) जीवनयज्ञ का निष्पादक (यः) जो अग्नि जगदीश्वर (द्विता) दोनों स्थानों में अर्थात् इहलोक में और मोक्षलोक में (आ भूत्) सहायक होता है ॥२॥
न केवल इस जीवन में, अपितु जन्म-जन्मान्तरों में और मोक्षलोक में भी जो जगदीश्वर हमारे साथ मित्रता का निर्वाह करता है, वह वन्दनीय क्यों न हो ॥२॥ इस खण्ड में परमात्मा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ पन्द्रहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य गुणान् कीर्तयति।
(सहसः सूनुम्) बलस्य प्रेरकम्, (जातवेदसम्) सर्वज्ञं, सर्वव्यापकं, ज्ञानस्य धनस्य च जनकम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरम् (वार्याणाम्) वरणीयानां सद्गुणानां सदैश्वर्याणां च (दानाय) दातये, अहं स्तौमीति शेषः, (मर्त्येषु) मरणधर्मसु प्राणिषु मध्ये (अमृतः) अमरः, (विशि) मानुष्यां प्रजायां च (मन्द्रतमः) अतिशयेन आनन्दप्रदः, (होता) जीवनयज्ञनिष्पादकः (यः) अग्निर्जगदीश्वरः (द्विता) द्वयोरपि स्थानयोः इहलोके परस्मिन् मोक्षलोके च (आ भूत्) सहायको भवति ॥२॥
न केवलमस्मिन् जीवने, प्रत्युत जन्मजन्मान्तरेषु मोक्षलोके चापि यो जगदीश्वरोऽस्माभिः सखित्वं निर्वहति स कुतो न वन्दनीयः स्यात् ॥२॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मविषयवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्बोध्या ॥