दा꣡शे꣢म꣣ क꣢स्य꣣ म꣡न꣢सा य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ सहसो यहो । क꣡दु꣢ वोच इ꣣दं꣡ नमः꣢꣯ ॥१५५०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)दाशेम कस्य मनसा यज्ञस्य सहसो यहो । कदु वोच इदं नमः ॥१५५०॥
दा꣡शे꣢꣯म । क꣡स्य꣢꣯ । म꣡न꣢꣯सा । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣हसः । यहो । क꣢त् । उ꣣ । वोचे । इद꣢म् । न꣡मः꣢꣯ ॥१५५०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर प्रश्न करते हैं।
हे (सहसः यहो) बल के पुत्र अर्थात् अत्यन्त बली परमेश्वर ! (कस्य यज्ञस्य मनसा) किस यज्ञ के मन से, हम आपको (दाशेम) आत्मसमर्पण करें ? (कत् उ) कैसे मैं (इदं नमः) इस नमस्कार को (वोचे) आपके प्रति कहूँ ? ॥२॥
अनेक सकाम यज्ञ और निष्काम यज्ञ प्रचलित हैं। पर मैं तो हे जगदीश्वर ! आपकी उपासना ही जिसका प्रयोजन है, ऐसे यज्ञ से ही आपको आत्मसमर्पण करता हूँ, किसी स्वार्थ को मन में रखकर नहीं। कैसे मैं आपको नमस्कार करूँ ? कुछ लोग साष्टाङ्ग प्रणाम करते हैं, कोई अञ्जलि बाँधकर प्रणाम करते हैं, कोई मूर्ति पर सिर नवाकर प्रणाम करते हैं, पर मैं तो चित्त को ही तेरे प्रति नवाता हूँ, शरीर के अङ्गों को नहीं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि प्रश्नं कुरुते।
हे (सहसः यहो) बलस्य पुत्र ! अतिशय बलवन् परमेश ! (कस्य यज्ञस्य मनसा) कस्य यज्ञस्य अभिलाषेण, वयम् त्वाम् (दाशेम) आत्मानं समर्पयेम। (कत् उ) कथं खलु, अहम् (इदं नमः) इमं नमस्कारम् (वोचे)२ त्वां प्रति ब्रूयाम् ? ॥२॥
अनेके सकामयज्ञा निष्कामयज्ञाश्च प्रचलिताः सन्ति। परमहं तु हे जगदीश्वर त्वदुपासनैकप्रयोजनेन यज्ञेनैव तुभ्यमात्मानं समर्पये, न तु कमपि स्वार्थं मनसि निधाय। कथमहं त्वां नमस्कुर्याम् ? केचित् साष्टाङ्गं प्रणमन्ति, केचिद् बद्धाञ्जलयः प्रणमन्ति, केचिन्मूर्तौ शिरो नत्वा प्रणमन्ति। परमहं तु चित्तमेव त्वयि नमयामि, न शरीराङ्गानि ॥२॥