पा꣣हि꣡ नो꣢ अग्न꣣ ए꣡क꣢या पा꣣ह्यू꣢३꣱त꣢ द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ गी꣣र्भि꣢स्ति꣣सृ꣡भि꣢रूर्जां पते पा꣣हि꣡ च꣢त꣣सृ꣡भि꣢र्वसो ॥१५४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पाहि नो अग्न एकया पाह्यू३त द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जां पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥१५४४॥
पा꣣हि꣢ । नः꣣ । अग्ने । ए꣡क꣢꣯या । पा꣣हि꣢ । उ꣣त꣢ । द्वि꣣ती꣡य꣢या । पा꣣हि꣢ । गी꣣र्भिः꣢ । ति꣣सृ꣡भिः꣢ । ऊ꣣र्जाम् । पते । पाहि꣢ । च꣣तसृ꣡भिः꣢ । व꣣सो ॥१५४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक के भाष्य में ३६ क्रमाङ्क पर परमेश्वर और विद्वान् को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ आचार्य को कहते हैं।
हे (अग्ने) विद्वान् आचार्य ! आप (एकया) धर्म का उपदेश करनेवाली एक वाणी से (नः) हमारी (पाहि) पालना करो, (उत) और (द्वितीयया) धर्मानुकूल धन कमाने का उपदेश करनेवाली दूसरी वाणी से (पाहि) हमारी पालना करो। हे (ऊर्जां पते) ब्रह्मबलों के अधिपति आचार्य। आप (तिसृभिः गीर्भिः) धर्म, अर्थ और काम का उपदेश करनेवाली तीन वाणियों से (पाहि) हमारी पालना करो। हे (वसो) सद्गुणों के निवासक आचार्य ! आप (चतसृभिः) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का उपदेश करनेवाली चार वाणियों से (पाहि) हमारी पालना करो ॥१॥
आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह शिष्यों को धर्म, धर्माविरोधि धन, धर्माविरोधि काम और मोक्ष के उपदेश से विद्वान् सदाचारी और मोक्ष का अधिकारी बनाये ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिक-भाष्ये ३६ क्रमाङ्के परमेश्वरं विद्वांसं च सम्बोधिता। अत्राचार्य उच्यते।
हे (अग्ने) विद्वन् आचार्य ! त्वम् (एकया) धर्मोपदेशिकया गिरा (नः) अस्मान् (पाहि) पालय, (उत) अपि च (द्वितीयया) धर्मानुकूलार्थोपदेशिकया वाचा (पाहि) पालय। हे (ऊर्जां पते) ब्रह्मबलाधिपते आचार्य ! त्वम् (तिसृभिः गीर्भिः) धर्मार्थकामोपदेशिकाभिः वाग्भिः (पाहि) पालय। हे (वसो) सद्गुणनिवासक आचार्य ! त्वम् (चतसृभिः) धर्मार्थकाममोक्षोपदेशिकाभिः वाग्भिः (पाहि) पालय ॥१॥२
आचार्यस्येदं कर्त्तव्यं यत् स शिष्यान् धर्मस्य, धर्माऽविरोधिनोऽर्थस्य, धर्माऽविरोधिनः कामस्य, मोक्षस्य चोपदेशेन विदुषः सदाचारान् मोक्षाधिकारिणश्च कुर्यात् ॥१॥