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देवता: अग्निः ऋषि: विरूप आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣡प꣢ त्वा जु꣣ह्वो꣢३꣱म꣡म꣢ घृ꣣ता꣡ची꣢र्यन्तु हर्यत । अ꣡ग्ने꣢ ह꣣व्या꣡ जु꣢षस्व नः ॥१५४२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उप त्वा जुह्वो३मम घृताचीर्यन्तु हर्यत । अग्ने हव्या जुषस्व नः ॥१५४२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्वा꣢ । जु꣢ह्वः । म꣡म꣢꣯ । घृ꣣ता꣡चीः꣢ । य꣣न्तु । हर्यत । अ꣡ग्ने꣢꣯ । ह꣣व्या꣢ । जु꣣षस्व । नः ॥१५४२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1542 | (कौथोम) 7 » 2 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 15 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा को हवि अर्पित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) ज्योतिर्मय परमेश ! हे (हर्यत) कमनीय ! (मम) मुझ स्तोता की (घृताचीः) स्नेह से आर्द्र वा तेज से युक्त (जुह्वः) वाणियाँ (त्वा) आपको (उप यन्तु) प्राप्त हों। आप (नः) हमारी (हव्या) आत्मसमर्पणरूप हवियों को (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार करो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

श्रद्धा और प्रेम से की गयी परमात्मा की स्तुति अवश्य फलदायक होती है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मने हविरर्पयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) ज्योतिर्मय परमेश ! हे (हर्यत) कमनीय ! (मम) स्तोतुर्मदीयाः (घृताचीः) स्नेहार्द्राः तेजसा युक्ताः वा (जुह्वः) वाचः। [वाग् जुहूः। तै० आ० २।१७।२।] (त्वा) त्वाम् (उप यन्तु) प्राप्नुवन्तु। त्वम् (नः) अस्माकम् (हव्या) आत्मसमर्पणरूपाणि हव्यानि (जुषस्व) प्रेम्णा स्वीकुरु ॥२॥

भावार्थभाषाः -

श्रद्धया प्रेम्णा च कृता परमात्मस्तुतिरवश्यं फलदायिनी जायते ॥२॥