सो꣡मः꣢ पू꣣षा꣡ च꣢ चेततु꣣र्वि꣡श्वा꣢साꣳ सुक्षिती꣣ना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ र꣣꣬थ्यो꣢꣯र्हि꣣ता꣢ ॥१५४
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोमः पूषा च चेततुर्विश्वासाꣳ सुक्षितीनाम् । देवत्रा रथ्योर्हिता ॥१५४
सो꣡मः꣢꣯ । पू꣣षा꣢ । च꣣ । चेततुः । वि꣡श्वा꣢꣯साम् । सु꣣क्षितीना꣢म् । सु꣣ । क्षितीना꣢म् । दे꣣वत्रा꣢ । र꣣थ्योः꣢꣯ । हि꣣ता꣢ ॥१५४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में सोम और पूषा के गुण-कर्मों के वर्णन द्वारा इन्द्र परमेश्वर की महिमा प्रकट की गयी है।
(सोमः पूषा च) चन्द्रमा और सूर्य अथवा मन और आत्मा (विश्वासाम् सुक्षितीनाम्) सब उत्कृष्ट प्रजाओं का (चेततुः) उपकार करना जानते हैं, वे (देवत्रा) विद्वज्जनों में (रथ्योः) रथारुढों के समान उन्नति के लिए प्रयत्नशील गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि के (हिता) हितकारी होते हैं ॥१०॥
इन्द्र नामक परमेश्वर की ही यह महिमा है कि उसकी रची हुई सृष्टि में सौम्य चन्द्रमा और तैजस सूर्य तथा मानव शरीर में सौम्य मन और तैजस आत्मा दोनों प्राण आदि के प्रदान द्वारा सब प्रजाओं का उपकार करते हैं। जैसे रथारूढ़ रथस्वामी और सारथि अथवा रानी और राजा क्रमशः मार्ग को पार करते चलते हैं, वैसे ही जो भी गुरु-शिष्य, माता-पिता, पिता-पुत्र, पत्नी-यजमान, स्त्री-पुरुष, शास्य-शासक आदि उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं, उनके लिए पूर्वोक्त दोनों चन्द्र-सूर्य और मन-आत्मा परम हितकारी होते हैं ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र और इन्द्र द्वारा रचित भूमि, गाय, वेदवाणी, चन्द्र, सूर्य आदि का महत्त्व वर्णित होने से और इन्द्र के पास से ऋत की मेधा की प्राप्ति का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ द्वितीय—प्रपाठक में द्वितीय—अर्ध की प्रथमः—दशति समाप्त ॥ द्वितीय—अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ सोमस्य पूष्णश्च गुणकर्मवर्णनमुखेनेन्द्रस्य महिमानमाचष्टे।
(सोमः पूषा च) सौम्यश्चन्द्रः पोषकः सूर्यश्च, यद्वा चान्द्रमसं मनः सौरः आत्मा च (विश्वासाम् सुक्षितीनाम्) सर्वासां सुप्रजानाम्, सर्वाः सुप्रजा इत्यर्थः। क्षितय इति मनुष्यनाम। निघं० २।३। द्वितीयार्थे षष्ठी। (चेततुः) उपकर्तुं जानीतः। चिती संज्ञाने, लडर्थे लिट्, द्वित्वाभावश्छान्दसः। तौ (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु। देवशब्दात् देवमनुष्य०। अ० ५।४।५६ इति सप्तम्यर्थे त्रा प्रत्ययः। (रथ्योः१) रथारूढयोरिव उन्नत्यै प्रयतमानयोः गुरुशिष्ययोः, मातापित्रोः, पितापुत्रयोः, पत्नीयजमानयोः, स्त्रीपुरुषयोः, शास्यशासकयोः (हिता) हितौ हितकारिणौ भवतः। अत्र सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्याकारः ॥१०॥
इन्द्राख्यस्य परमेश्वरस्यैवायं महिमा यत् तद्रचितायां सृष्टौ सौम्यश्चन्द्रमास्तैजसः सूर्यश्च, मानवशरीरे च सौम्यं मनस्तैजस आत्मा च उभावपि प्राणादिप्रदानेन सर्वाः प्रजा उपकुरुतः। यथा रथारूढी रथस्वामी सारथिश्च यद्वा राज्ञी राजा च क्रमशोऽध्वानं लङ्घयतस्तथैव यावपि गुरुशिष्यौ वा मातापितरौ वा पितापुत्रौ वा पत्नीयजमानौ वा स्त्रीपुरुषौ वा शास्यशासकौ वा समुत्कर्षाय प्रयतमानौ भवतस्तयोः कृते तौ परमहितावहौ सम्पद्येते ॥१०॥ अत्रेन्द्रस्य तद्रचितानां भूमिधेनुवेदवाक्चन्द्रसूर्यादीनां च महत्त्ववर्णनात्, इन्द्रस्य सकाशाद् ऋतस्य मेधायाः प्राप्तिवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके द्वितीयार्धे प्रथमा दशतिः। इति द्वितीयाध्याये चतुर्थः खण्डः।