वृ꣡षो꣢ अ꣣ग्निः꣡ समि꣢꣯ध्य꣣ते꣢ऽश्वो꣣ न꣡ दे꣢व꣣वा꣡ह꣢नः । त꣢ꣳ ह꣣वि꣡ष्म꣢न्त ईडते ॥१५३९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः । तꣳ हविष्मन्त ईडते ॥१५३९॥
वृ꣡षा꣢꣯ । उ꣣ । अग्निः꣢ । सम् । इ꣣ध्यते । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । दे꣣ववा꣡ह꣢नः । दे꣣व । वा꣡ह꣢꣯नः । तम् । ह꣣वि꣡ष्म꣢न्तः । ई꣣डते ॥१५३९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा की उपासना का फल वर्णित है।
(वृषः) सुखों की वर्षा करनेवाला (अग्निः) जगन्नायक परमेश्वर (समिध्यते) उपासकों द्वारा अपने अन्तरात्मा में प्रदीप्त किया जाता है, जो (देववाहनः) विद्वानों के वाहन (अश्वः न) घोड़े के समान (देववाहनः) दिव्य गुणों का वाहक है। (तम्) उस परमेश्वर की (हविष्मन्तः) आत्मसमर्पण करनेवाले उपासक लोग (ईडते) आराधना करते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे रथ में नियुक्त किया हुआ वेगवान् घोड़ा शीघ्र ही मनुष्यों को लक्ष्य पर पहुँचा देता है, वैसे ही योगाभ्यास से अपने अन्तरात्मा में नियुक्त परमेश्वर दिव्य गुण प्राप्त करा कर उपासकों को शीघ्र ही उन्नत कर देता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मोपासनायाः फलमाह।
(वृषः) सुखवर्षकः (अग्निः) जगन्नायकः परमेश्वरः (समिध्यते) उपासकैः स्वान्तरात्मनि प्रदीप्यते, यः (देववाहनः) विदुषां वाहनभूतः (अश्वः न) तुरङ्ग इव (देववाहनः) दिव्यगुणानां वाहकः अस्ति। (तम्) परमेश्वरम् (हविष्मन्तः) आत्मसमर्पणवन्तः उपासकाः (ईडते) आराध्नुवन्ति ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा रथे योजितो वेगवानश्वो जनान् सद्यः लक्ष्यं प्रापयति तथैव योगाभ्यासेन स्वात्मनि नियुक्तः परमेश्वरो दिव्यगुणप्रापणेनोपासकान् सद्य उन्नयति ॥२॥