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देवता: अग्निः ऋषि: विरूप आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣ग्नि꣢र्मू꣣र्धा꣢ दि꣣वः꣢ क꣣कु꣡त्पतिः꣢꣯ पृथि꣣व्या꣢ अ꣣य꣢म् । अ꣣पा꣡ꣳ रेता꣢꣯ꣳसि जिन्वति ॥१५३२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाꣳ रेताꣳसि जिन्वति ॥१५३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । मू꣣र्धा꣢ । दि꣣वः꣢ । क꣣कु꣢त् । प꣡तिः꣢꣯ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣡य꣢म् । अ꣣पा꣢म् । रे꣡वा꣢꣯ꣳसि । जि꣢न्वति ॥१५३२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1532 | (कौथोम) 7 » 1 » 16 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 4 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २७ क्रमाङ्क पर परमात्मा और सूर्य के पक्ष में की जा चुकी है। यहाँ अग्नि-तत्त्व का महत्त्व वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) अग्नि ही, शरीर में (मूर्धा) मस्तिष्क है, क्योंकि मस्तिष्क अग्नि- प्रधान है। यही सूर्य रूप में (दिवः) द्युलोक का (ककुत्) राजा है। (अयम्) यही पार्थिव अग्नि के रूप में (पृथिव्याः) पृथिवी का (पतिः) पालनकर्ता है। अग्नि ही (अपाम्) जलों के (रेतांसि) सूक्ष्म अवयवों को (जिन्वति) भूमि से अन्तरिक्ष की ओर और अन्तरिक्ष से भूमि की ओर प्रेरित करता है अर्थात् वर्षा में कारण बनता है ॥१॥ यहाँ एक अग्नि का अनेक रूप में उल्लेख होने के कारण विषयभेदनिबन्धन उल्लेखालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

अग्नि ही सब चेतन-अचेतन जगत् की स्थिति का कारण है। वही आग, बिजली, सूर्य, जाठराग्नि, प्राणाग्नि, वाडवाग्नि आदि के रूप में अनेक प्रकार से विद्यमान होता हुआ हमारा उपकार करता है, जैसा की श्रुति कहती है—एक॑ ए॒वाग्निर्ब॑हु॒धा समि॑द्धः (ॠ० ८।५८।२) ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २७ क्रमाङ्के परमात्मपक्षे सूर्यपक्षे च व्याख्याता। अत्राग्नितत्त्वस्य महत्त्वमुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अग्निः) अग्निरेव देहे (मूर्धा) मस्तिष्कमस्ति, अग्निप्रधानत्वान्मस्तिष्कस्य, अयमेव सूर्यरूपेण (दिवः) द्युलोकस्य (ककुत्) राजा अस्ति, (अयम्) अयमेव पार्थिवाग्निरूपेण (पृथिव्याः) भूमेः (पतिः) पालकोऽस्ति। अग्निरेव (अपाम्) उदकानाम् (रेतांसि) सूक्ष्मानवयवान् (जिन्वति) भूमेरन्तरिक्षं प्रति अन्तरिक्षाच्च भूमिं प्रति प्रेरयति, वृष्टिनिमित्तं भवतीत्यर्थः ॥१॥२ अत्रैकस्याग्नेरनेकधोल्लेखे विषयभेदनिबन्धन उल्लेखालङ्कारः३ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

अग्निरेव हि सर्वस्य चेतनाचेतनात्मकस्य जगतः स्थितिनिबन्धनम्। स एव वह्निविद्युदादित्यजाठराग्निप्राणाग्निवाडवाग्न्यादिरूपेणा- नेकधा विद्यमानोऽस्मानुपकरोति, यथाह श्रुतिः—एक॑ ए॒वाग्निर्ब॑हु॒धा समिद्धः (ऋ० ८।५८।२) इति ॥१॥