तं꣡ त्वा꣢ घृतस्नवीमहे꣣ चि꣡त्र꣢भानो स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । दे꣣वा꣢꣫ꣳ आ वी꣣त꣡ये꣢ वह ॥१५२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तं त्वा घृतस्नवीमहे चित्रभानो स्वर्दृशम् । देवाꣳ आ वीतये वह ॥१५२२॥
त꣢म् । त्वा꣣ । घृतस्नो । घृत । स्नो । ईमहे । चि꣡त्र꣢꣯भानो । चि꣡त्र꣢꣯ । भा꣣नो । स्वर्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् । दे꣣वा꣢न् । आ । वी꣣त꣡ये꣢ । व꣣ह ॥१५२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उन्हीं से प्रार्थना की गयी है।
हे (घृतस्नो) विद्या-रस तथा आनन्द-रस को बहानेवाले, (चित्रभानो) अद्भुत तेजवाले जगदीश्वर वा आचार्य ! (तम्) उन प्रसिद्ध (स्वर्दृशम्) विवेकरूप प्रकाश को दर्शानेवाले (त्वा) आपसे, हम (ईमहे) याचना करते हैं। आप (वीतये) हमारी प्रगति के लिए (देवान्) दिव्य गुणों को (आ वह) प्राप्त कराओ ॥२॥
परमात्मा की उपासना से और आचार्यकुल में निवास से आनन्दरस, विद्यारस तथा कर्तव्य और अकर्तव्य का प्रकाश और जीवन में प्रगति प्राप्त होती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तावेव प्रार्थयते।
हे (घृतस्नो) विद्यारसस्य आनन्दरसस्य च प्रस्रावक, (चित्रभानो) अद्भुततेजःसम्पन्न अग्ने जगदीश्वर आचार्य वा ! (तम्) प्रसिद्धम् (स्वर्दृशम्) विवेकप्रकाशस्य दर्शयितारम् (त्वा) त्वाम् वयम् (ईमहे) याचामहे। त्वम् (वीतये) अस्माकं प्रगतये (देवान्) दिव्यगुणान् (आ वह) प्रापय ॥२॥२
परमात्मोपासनेनाचार्यकुलवासेन चानन्दरसो विद्यारसः कर्तव्याकर्तव्यप्रकाशो जीवने प्रगतिश्च प्राप्यते ॥२॥