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त꣡ꣳ होता꣢꣯रमध्व꣣र꣢स्य꣣ प्र꣡चे꣢तसं꣣ व꣡ह्निं꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢कृण्वत । द꣡धा꣢ति꣣ र꣡त्नं꣢ विध꣣ते꣢ सु꣣वी꣡र्य꣢म꣣ग्नि꣡र्जना꣢꣯य दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१५१४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तꣳ होतारमध्वरस्य प्रचेतसं वह्निं देवा अकृण्वत । दधाति रत्नं विधते सुवीर्यमग्निर्जनाय दाशुषे ॥१५१४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣢म् । हो꣡ता꣢꣯रम् । अ꣣ध्वर꣡स्य꣢ । प्र꣡चे꣢꣯तसम् । प्र । चे꣣तसम् । व꣡ह्नि꣢꣯म् । दे꣣वाः꣢ । अ꣣कृण्वत । द꣡धा꣢꣯ति । र꣡त्न꣢꣯म् । वि꣣धते꣢ । सु꣣वी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । अ꣣ग्निः꣢ । ज꣡ना꣢꣯य । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१५१४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1514 | (कौथोम) 7 » 1 » 10 » 2 | (रानायाणीय) 14 » 3 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर अग्निहोत्र का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(प्रचेतसम्) चेतानेवाले (वह्निम्) अग्नि को (देवाः) विद्वान् अग्निहोत्री लोग (अध्वरस्य) हिंसारहित यज्ञ का (होतारम्) निष्पादक (अकृण्वत) करते हैं। वह (अग्निः) यज्ञाग्नि (विधते) परमेश्वर-पूजक, (दाशुषे जनाय) हवि देनेवाले अग्निहोत्री को (सुवीर्यम्) सुवीर्य से युक्त (रत्नम्) आरोग्य आदि रत्न (दधाति) प्रदान करता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यज्ञाग्नि में रोग हरनेवाले सुगन्धित द्रव्यों की जो आहुति दी जाती है, वह अग्नि-ज्वालाओं द्वारा विच्छिन्न और सूक्ष्म की जाकर वायु के माध्यम से इधर-उधर फैलकर श्वास द्वारा प्राणियों के फेफड़ों में पहुँच कर वहाँ रक्तवाहिनी पतली-पतली केशिकाओं में खून से सम्बद्ध होकर खून में औषध को प्रविष्ट करा देती है और खून की मलिनता को हरकर साँस से बाहर निकाल देती है। इस प्रकार प्राणियों को स्वास्थ्य देती है। अग्निज्वालाओं की दीप्ति, उर्ध्वगति, दोष-दाहकता इत्यादि गुणों को देखकर यज्ञकर्ता अपने अन्दर भी इन गुणों को धारण करने का यत्न करता है। इस प्रकार अग्निहोत्र से बाह्य तथा आन्तरिक दोनों प्रकार के लाभ होते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरप्यग्निहोत्रविषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(प्रचेतसम्) प्रचेतयति जागरयति यस्तम् (वह्निम्) अग्निम् (देवाः) विद्वांसः अग्निहोत्रिणः (अध्वरस्य) हिंसारहितस्य यज्ञस्य (होतारम्) निष्पादनसाधनम् (अकृण्वत) कुर्वन्ति। असौ (अग्निः) यज्ञाग्निः (विधते) परमेश्वरं परिचरते। [विधतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५।] (दाशुषे जनाय) हवींषि दत्तवते अग्निहोत्रिणे (सुवीर्यम्) सुवीर्योपेतम् (रत्नम्) आरोग्यादिकं रमणीयं धनम् (दधाति) प्रयच्छति ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

यज्ञाग्नौ रोगहराणां सुगन्धिद्रव्याणां याऽऽहुतिः प्रदीयते साऽग्निज्वालाभिर्विच्छिन्ना सूक्ष्मीकृता च वायुमाध्यमेनेतस्ततः प्रसृता सती श्वासद्वारा प्राणिनां फुफ्फुसान्तर्गता तत्र रक्तवाहिनीषु सूक्ष्मासु केशिकासु रक्तेन सम्बद्धा तत्रौषधं समावेशयति रक्तस्य मालिन्यं चापहृत्य श्वासद्वारेण बहिर्निस्सारयति। एवं प्राणिनां स्वास्थ्यं जनयति। अग्निज्वालानां दीप्तिमूर्ध्वगामित्वं दोषदाहकत्वमित्यादिगुणानवलोक्य यज्ञकर्ता स्वात्मन्यप्येतान् गुणान् धारयितुं यतते। तदेवमग्निहोत्रेणान्तरिका बाह्याश्चोभयेऽपि लाभाः सम्पद्यन्ते ॥२॥