न꣢ ह्या꣣꣬ꣳ३꣱ग꣢ पु꣣रा꣢ च꣣ न꣢ ज꣣ज्ञे꣢ वी꣣र꣡त꣢र꣣स्त्व꣢त् । न꣡ की꣢ रा꣣या꣢꣫ नैवथा꣣ न꣢ भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१५११॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)न ह्याꣳ३ग पुरा च न जज्ञे वीरतरस्त्वत् । न की राया नैवथा न भन्दना ॥१५११॥
न । हि । अ꣣ङ्ग꣢ । पु꣣रा꣢ । च꣣ । न꣢ । ज꣣ज्ञे꣢ । वी꣣र꣡त꣢रः । त्वत् । न । किः꣣ । राया꣢ । न । ए꣣व꣡था꣢ । न । भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१५११॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में इन्द्र परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
हे (अङ्ग) प्रिय परमेश्वर ! (पुरा च न) पहले भी (त्वत्) आपकी अपेक्षा (वीरतरः) अधिक वीर (न जज्ञे) कोई उत्पन्न नहीं हुआ, [अब नहीं है और भविष्य में नहीं होगा, इसका तो कहना ही क्या।] (न किः) न ही (राया) धन में(न एवथा) न गति कर्म व रक्षा में और (न) ही (भन्दना) कल्याण में आपसे अधिक कोई उत्पन्न हुआ है वा होगा ॥३॥
जगदीश्वर से अधिक वीर, धनी, कर्मण्य, रक्षक और कल्याणकारी अन्य कोई भी न हुआ, न है, न होगा। इसलिए अपने सुख और शान्ति के लिए उसी की वन्दना सबको करनी चाहिए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रस्य परमात्मनो महिमानमाह।
हे (अङ्ग) प्रिय परमेश ! (पुरा च न) प्राक्-कालेऽपि (त्वत्) त्वदपेक्षया (वीरतरः) अधिको वीरः कश्चन (न जज्ञे) नैव उत्पन्नः, साम्प्रतं नास्ति, भाविनि काले च न भविष्यतीति किमु वक्तव्यम् (न किः) नैव (राया) धनेन, (न एवथा२) न एवेन गमनेन, कर्मणा, अवनेन वा, (न) नापि च (भन्दना३) भन्दनया कल्याणेन त्वदधिकः (कश्चिद्) जज्ञे वर्तते, जनिष्यते वा। [एवैः अयनैः अवनैर्वा इति निरुक्तम् २।२५। इण् गतौ धातोः ‘इण्शीभ्यां वन्।’ उ० १।१५२ इति वन् प्रत्ययः। ततस्तृतीयार्थे छान्दसः था प्रत्ययः। भन्दना, भदि कल्याणे सुखे च, कल्याणेन। भन्दनया इति प्राप्ते ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१३९ इति तृतीयाया आकारादेशः] ॥३॥
न खलु जगदीश्वरादधिकः कश्चिद् वीरो धनवान् कर्मण्यो रक्षकः कल्याणकरश्च भूतो वर्तते वर्तिष्यते वा। अत आत्मनः सुखाय शान्त्यै च स एव सर्वैर्वन्दनीयः ॥३॥