ए꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य सिञ्चत꣣ पि꣡बा꣢ति सो꣣म्यं꣡ मधु꣢꣯ । प्र꣡ राधा꣢꣯ꣳसि चोदयते महित्व꣣ना꣢ ॥१५०९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एन्दुमिन्द्राय सिञ्चत पिबाति सोम्यं मधु । प्र राधाꣳसि चोदयते महित्वना ॥१५०९॥
आ꣢ । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सि꣣ञ्चत । पि꣡बा꣢꣯ति । सो꣣म्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । प्र । रा꣡धा꣢꣯ꣳसि । चो꣣दयते । महित्वना꣢ ॥१५०९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा में पूर्वार्चिक के ३८६ क्रमाङ्क पर इन्द्र शब्द से परमात्मा का ग्रहण किया गया था। यहाँ जीवात्मा का ग्रहण करते हैं।
हे साथियो ! तुम (इन्द्राय) अपने अन्तरात्मा के लिए (इन्द्रम्) सराबोर करनेवाले ब्रह्मानन्द-रस को (आ सिञ्चत) प्रवाहित करो। वह अन्तरात्मा (सोम्यम्) शान्तिकारी (मधु) उस मधुर ब्रह्मानन्द-रस को (पिबाति) पिये। पिया हुआ वह ब्रह्मानन्द-रस (महित्वना) अपनी महिमा से (राधांसि) ऐश्वर्यों को (प्रचोदयते) प्रेरित करे ॥१॥
परमात्मा के पास से बहता हुआ आनन्द-रस जीवात्मा से पान किये जाने पर बहुत कल्याणकारी होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमायामृचि पूर्वार्चिके ३८६ क्रमाङ्के इन्द्रशब्देन परमात्मा गृहीतः। अत्र जीवात्मा गृह्यते।
हे सखायः ! यूयम् (इन्द्राय) स्वकीयाय अन्तरात्मने (इन्दुम्) क्लेदकं ब्रह्मानन्दरसम् (आ सिञ्चत) क्षारयत। सः (सोम्यम्) शान्तिकरम् (मधु) मधुरं तं ब्रह्मानन्दरसम् (पिबाति) पिबतु। पीतः स ब्रह्मानन्दरसः (महित्वना) स्वमहिम्ना (राधांसि) ऐश्वर्याणि (प्र चोदयते) प्रेरयतु ॥१॥
परमात्मनः सकाशात् प्रवहन्नानन्दरसः जीवात्मना पीतो बहुकल्याणकरो जायते ॥१॥