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अ꣣꣬भ्य꣢꣯भि꣣ हि꣡ श्रव꣢꣯सा त꣣त꣢र्दि꣣थो꣢त्सं꣣ न꣡ कं चि꣢꣯ज्जन꣣पा꣢न꣣म꣡क्षि꣢तम् । श꣡र्या꣢भि꣣र्न꣡ भर꣢꣯माणो꣣ ग꣡भ꣢स्त्योः ॥१५०७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभ्यभि हि श्रवसा ततर्दिथोत्सं न कं चिज्जनपानमक्षितम् । शर्याभिर्न भरमाणो गभस्त्योः ॥१५०७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भ्य꣢꣯भि । अ꣣भि꣢ । अ꣣भि । हि꣢ । श्र꣡व꣢꣯सा । त꣣त꣡र्दि꣢थ । उ꣡त्स꣢꣯म् । उत् । स꣣म् । न꣢ । कम् । चि꣣त् । जनपा꣡न꣢म् । ज꣣न । पा꣡न꣢꣯म् । अ꣡क्षि꣢꣯तम् । अ । क्षि꣣तम् । श꣡र्या꣢꣯भिः । न । भ꣡र꣢꣯माणः । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥१५०७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1507 | (कौथोम) 7 » 1 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 14 » 2 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में जगत्पति के उपकारों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम नामक जगत्पति परमात्मन् ! (श्रवसा) यश से प्रसिद्ध आप (अक्षितम् उत्सं न) अक्षय जल-स्रोत के समान(अक्षितं जनपानम्) मनुष्यों से पान करने योग्य अक्षय आनन्द-रस को (अभ्यभि हि) उपासकों के प्रति (ततर्दिथ) बहाते हो और (गभस्त्योः) बाहुओं की (शर्याभिः न) अंगुलियों से जैसे कोई मनुष्य किसी वस्तु को पकड़ता है, वैसे ही आपने (गभस्त्योः) द्यावापृथिवी की (शर्याभिः) किरणों से (भरमाणः) लोक लोकान्तरों को धारण किया हुआ है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे स्रोत से बहता हुआ जलप्रवाह भूभाग को आप्लावित कर देता है, वैसे ही परमात्मा के पास से बहता हुआ आनन्द-रस उपासकों के अन्तःकरण को आप्लावित करता है और जैसे बाहुओं की अंगुलियों से कोई किसी पदार्थ को धारण करता है, वैसे ही जगदीश्वर द्यावापृथिवी में व्याप्त सूर्य-रश्मियों से विभिन्न लोकों को धारण करता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ जगत्पतेरुपकारान् वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सोम जगत्पितः परमात्मन् ! (श्रवसा) यशसा प्रख्यातः त्वम्, (कंचित् अक्षितम् उत्सं न) कंचित् अक्षयं जलस्रोतः इव (अक्षितं जनपानम्) जनैः पातव्यम् अक्षयम् आनन्दरसम् (अभ्यभि हि) उपासकान् प्रति (ततर्दिथ) प्रवाहयसि। किञ्च (गभस्त्योः) बाह्वोः। [गभस्ती इति बाह्वोर्नाम। निघं० २।४।] (शर्याभिः२ न) अङ्गुलीभिरिव। [शर्या इति अङ्गुलिनाम। निघं० २।५।] (गभस्त्योः) द्यावापृथिव्योः (शर्याभिः) रश्मिभिः (भरमाणः) लोकलोकान्तराणि धारयन् भवसि ॥२॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा स्रोतसः प्रवहन् जलप्रवाहो भूभागमाप्लावयति तथैव परमात्मनः प्रवहन्नानन्दरस उपासकानामन्तःकरणमाप्लावयति। यथा च कश्चिद्बाह्वोरङ्गुलीभिः कमपि पदार्थं धारयति तथैव जगदीश्वरो द्यावापृथिव्योर्व्याप्ताभिः सूर्यरश्मिभिर्विभिन्नान् लोकान् धारितवानस्ति ॥२॥