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देवता: अग्निः ऋषि: शुनःशेप आजीगर्तिः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

वि꣣भक्ता꣡सि꣢ चित्रभानो꣣ सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मा꣡ उ꣢पा꣣क꣢ आ । स꣣द्यो꣢ दा꣣शु꣡षे꣢ क्षरसि ॥१४९८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

विभक्तासि चित्रभानो सिन्धोरूर्मा उपाक आ । सद्यो दाशुषे क्षरसि ॥१४९८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि꣣भक्ता꣢ । वि꣣ । भक्ता꣢ । अ꣡सि । चित्रभानो । चित्र । भानो । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मौ꣢ । उ꣣पाके꣢ । आ । स꣣द्यः꣢ । स꣣ । द्यः꣢ । दा꣣शु꣡षे꣢ । क्ष꣣रसि ॥१४९८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1498 | (कौथोम) 7 » 1 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 14 » 1 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर जगदीश्वर और आचार्य को कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (चित्रभानो) अद्भुत तेजवाले अग्नि नामक परमात्मन् ! आप (विभक्ता असि) अपने तेज को अन्य सूर्य आदि पदार्थों में बाँटनेवाले हो। आप (सिन्धोः) समुद्र वा नदी की (उर्मौ) लहर में विद्यमान हो। आप (उपाके) सबके समीप (आ) विराजमान हो। आप (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता उपासक के लिए (सद्यः) शीघ्र ही (क्षरसि) आनन्द को चुआते हो ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। हे (चित्रभानो) अद्भुत विद्या-प्रकाश से पूर्ण विद्वान् आचार्य ! आप (विभक्ता असि) अन्यों में विद्या को बांटनेवाले हो। (सिन्धोः उर्मौ उपाके) नदी के लहरोंवाले प्रवाह के निकट (आ) गुरुकुल आश्रम की स्थापना करके निवास करते हो और वहाँ (सद्यः) जल्दी-जल्दी (दाशुषे) आत्मसमर्पक शिष्य के लिए (क्षरसि) विद्या को बरसाते हो ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जगदीश्वर सब वस्तुएँ अपनी प्रजाओं में बाँटते हैं, वैसे ही गुरु लोग सब विद्याएँ अपने शिष्यों में बाँटें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनर्जगदीश्वरमाचार्यं च प्राह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे (चित्रभानो) अद्भुततेजस्क अग्ने परमात्मन् ! त्वम् (विभक्ता) असि स्वकीयस्य तेजसः अन्येषु सूर्यादिपदार्थेषु विभाजयिता असि। त्वम् (सिन्धोः) समुद्रस्य नद्याः वा (ऊर्मौ) तरङ्गे विद्यसे। (उपाके) सर्वेषां समीपे (आ) आगतोऽसि। [उपाके इति अन्तिकनाम। निघं० २।१६।] त्वम् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय उपासकाय (सद्यः) शीघ्रमेव (क्षरसि) आनन्दं स्रावयसि ॥ द्वितीयः—आचार्यपरः। हे (चित्रभानो२) अद्भुतविद्याप्रकाशमय विद्वन् आचार्य ! त्वम् (विभक्ता असि) विद्यायाः अन्येषु विभाजयिता विद्यसे। (सिन्धोः ऊर्मौ उपाके) नद्याः ऊर्मिमयस्य प्रवाहस्य निकटे (आ) गुरुकुलाश्रमं संस्थाप्य आतिष्ठसि। तत्र च (सद्यः) शीघ्रम् (दाशुषे२) आत्मसमर्पकाय शिष्याय (क्षरसि) विद्यां वर्षसि ॥२॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा जगदीश्वरः सर्वं वस्तुजातं स्वप्रजासु विभजति तथैव गुरवः सर्वा विद्याः शिष्येषु विभजेरन् ॥२॥