इ꣣म꣢मू꣣ षु꣢꣫ त्वम꣣स्मा꣡क꣢ꣳ स꣣निं꣡ गा꣢य꣣त्रं꣡ नव्या꣢꣯ꣳसम् । अ꣡ग्ने꣢ दे꣣वे꣢षु꣣ प्र꣡ वो꣢चः ॥१४९७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इममू षु त्वमस्माकꣳ सनिं गायत्रं नव्याꣳसम् । अग्ने देवेषु प्र वोचः ॥१४९७॥
इ꣣म꣢म् । ऊ꣣ । सु꣢ । त्वम् । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । स꣣नि꣢म् । गा꣣यत्र꣢म् । न꣡व्यां꣢꣯सम् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दे꣣वे꣡षु꣢ । प्र । वो꣣चः ॥१४९७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २८ क्रमाङ्क पर परमेश्वर को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ जगदीश्वर और आचार्य को सम्बोधन है।
हे (अग्ने) विद्वन् जगदीश्वर वा आचार्य ! (त्वम् उ) आप (इमम्) इस (अस्माकं सनिम्) हमें बहुत बोध देनेवाले (गायत्रम्) गायत्री आदि छन्दों से युक्त वेदज्ञान को वा गायत्र नामक साम को (देवेषु) दिव्य गुणोंवाले सत्पात्रों में (सु प्रवोचः) भली-भाँति उपदेश करते हो ॥१॥
जैसे सृष्टि के आदि में जगदीश्वर अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा नामक ऋषियों के हृदय में चारों वेदों को प्रेरित करता है, वैसे ही गुरु लोग आजकल के सत्पात्र शिष्यों को वेदज्ञान का उपदेश करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २८ क्रमाङ्के परमेश्वरं सम्बोधिता। अत्र जगदीश्वर आचार्यश्च सम्बोध्यते।
हे (अग्ने) विद्वन् जगदीश्वर आचार्य वा ! (त्वम् उ) त्वं खलु (इमम्) एतम् (अस्माकं सनिम्) अस्मभ्यं बहुबोधप्रदम् (नव्यांसम्) नित्यनवीनतरम् (गायत्रम्) गायत्र्यादि-छन्दस्कं वेदज्ञानं गायत्रं साम वा (देवेषु) दिव्यगुणेषु सत्पात्रेषु (सु प्रवोचः) सम्यग् उपदिशसि ॥१॥२
यथा सृष्ट्यादौ जगदीश्वरोऽग्निवाय्वादित्याङ्गिरसामृषीणां हृदये वेदचतुष्टयीं प्रेरयति तथैव गुरव इदानींतनान् सत्पात्रभूतान् शिष्यान् वेदज्ञानमुपदिशेयुः ॥१॥