अ꣢ध꣣ य꣢दि꣣मे꣡ प꣢वमान꣣ रो꣡द꣢सी इ꣣मा꣢ च꣣ वि꣢श्वा꣣ भु꣡व꣢ना꣣भि꣢ म꣣ज्म꣡ना꣢ । यू꣣थे꣢꣫ न नि꣣ष्ठा꣡ वृ꣢ष꣣भो꣡ वि रा꣢꣯जसि ॥१४९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अध यदिमे पवमान रोदसी इमा च विश्वा भुवनाभि मज्मना । यूथे न निष्ठा वृषभो वि राजसि ॥१४९६॥
अ꣡ध꣢꣯ । यत् । इ꣣मे꣢इति꣢ । प꣣वमान । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । इ꣣मा꣢ । च꣣ । वि꣡श्वा꣢꣯ । भु꣡व꣢꣯ना । अ꣣भि꣢ । म꣣ज्म꣡ना꣢ । यू꣣थे꣢ । न । नि꣣ष्ठाः꣢ । निः꣣ । स्थाः꣢ । वृ꣣षभः꣢ । वि । रा꣣जसि ॥१४९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमेश्वर की महिमा वर्णित है।
(अध) और, हे (पवमान) क्रियाशील परमात्मन् ! आप (यत्) जब (इमे रोदसी) इन द्युलोक और भूलोक को (इमा च) तथा इन (विश्वा भुवना) सब भुवनों को (मज्मना) बल से (अभि) अभिभूत करते हो, तब (यूथे न) जैसे गौओं के झुण्ड में (निष्ठाः) स्थित (वृषभा) साँड शोभा पाता है, वैसे ही आप (विराजसि) शोभते हो ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
जैसे गौओं के झुण्ड में वृषभ अपने महत्व के कारण पृथक् शोभा पाता है, वैसे ही ब्रह्माण्ड के लोक-लोकान्तरों के मध्य जगत्स्रष्टा परमेश्वर सर्वाधिक महिमा के कारण पृथक् भासित होता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमेश्वरस्य महिमानमाह।
(अध) अथ, हे (पवमान) गतिमय, क्रियाशील परमात्मन् ! [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] त्वम् (यत्) यदा (इमे रोदसी) एते द्यावापृथिव्यौ (इमा च) इमानि च (विश्वा भुवना) सर्वाणि भुवनानि (मज्मना) बलेन [मज्मन् इति बलनाम। निघं० २।९।] (अभि) अभिभवसि, तदा (यूथे न) यथा गोयूथे (निष्ठाः) निष्ठितः (वृषभा) वृषभः विराजति। [सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ सोराकारादेशः।] तथा, त्वम् (वि राजसि) विशेषेण शोभसे ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
यथा गोयूथे वृषभः महत्त्वेन पृथक् शोभते तथैव ब्रह्माण्डस्य लोकलोकान्तराणां मध्ये जगत्स्रष्टा परमेशः सर्वातिशायिना महिम्ना पृथग् भासते ॥३॥