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आ꣢दीं꣣ के꣢ चि꣣त्प꣡श्य꣢मानास꣣ आ꣡प्यं꣢ वसु꣣रु꣡चो꣢ दि꣣व्या꣢ अ꣣꣬भ्य꣢꣯नूषत । दि꣣वो꣡ न वार꣢꣯ꣳ सवि꣣ता꣡ व्यू꣢र्णुते ॥१४९५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आदीं के चित्पश्यमानास आप्यं वसुरुचो दिव्या अभ्यनूषत । दिवो न वारꣳ सविता व्यूर्णुते ॥१४९५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢त् । ई꣣म् । के꣢ । चि꣢त् । प꣡श्य꣢꣯मानासः । आ꣡प्य꣢꣯म् । व꣣सुरु꣡चः꣢ । व꣣सु । रु꣡चः꣢꣯ । दि꣣व्याः꣢ । अ꣣भि꣢ । अ꣣नूषत । दिवः꣢ । न । वा꣡र꣢꣯म् । स꣣विता꣢ । वि । ऊ꣣र्णुते ॥१४९५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1495 | (कौथोम) 7 » 1 » 3 » 2 | (रानायाणीय) 14 » 1 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे पुनः वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आत्) जब परब्रह्म के पास से बहता हुआ ब्रह्मानन्द-रस जीवात्मा को प्राप्त होने लगता है, उसके अनन्तर इस ब्रह्मानन्द के (आप्यम्) अपने साथ बन्धुत्व को (पश्यमानासः) देखते हुए, (वसुरुचः) अग्नि, बिजली और आदित्य के समान कान्तिवाले तेजस्वी (केचित्) कोई (दिव्याः) दीप्तिमान् ब्रह्म का साक्षात्कार करने में निपुण उपासक (ईम्) इस ब्रह्मानन्द-रस की (अभ्यनूषत) स्तुति करते हैं। (सविता) सूर्य (दिवः न वारम्) जैसे आकाश के शिशु चन्द्रमा को अपने प्रकाश से (व्यूर्णुते) आच्छादित करता है, वैसे ही (सविता) रस का प्रवाहक सोम परमेश्वर उन उपासकों को (व्यूर्णुते) आनन्द-रस से आच्छादित करता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा स्नान करता है, वैसे ही परमात्मा के आनन्द-रस से जीव ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(आत्) तदनन्तरम्, यदा परब्रह्मणः सकाशात् प्रस्रवन् ब्रह्मानन्दरसो जीवात्मानं प्राप्नोति तदेत्यर्थः। अस्य (आप्यम्) स्वात्मना सह बन्धुत्वम् (पश्यमानासः) वीक्षमाणाः, (वसुरुचः) वसुवत् अग्निविद्युदादित्यवद् रुक् कान्तिर्येषां ते, तेजस्विनः (केचित्) केचन (दिव्याः) दिवि द्योतमाने परब्रह्मणि साधवः परब्रह्मसाक्षात्कारनिपुणा उपासकाः इत्यर्थः (ईम्) एनं ब्रह्मानन्दरसम् (अभ्यनूषत) अभिस्तुवन्ति। (सविता) सूर्यः (दिवः न वारम्) आकाशस्य बालं शिशुं चन्द्रमसं यथा स्वप्रकाशेन (व्यूर्णुते) आच्छादयति, तथैव (सविता) रसाभिषोता सोमः परमेश्वरः तान् उपासकान् (व्यूर्णुते) आनन्दरसेन आच्छादयति। [वारं बालम् वबयो रलयोश्चाभेदत्वात्] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा सूर्यप्रकाशेन चन्द्रः स्नाति, तथैव परमात्मन आनन्दरसेन जीवः ॥२॥