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प्र꣣त्नं꣢ पी꣣यू꣡षं꣢ पू꣣र्व्यं꣢꣫ यदु꣣꣬क्थ्यं꣢꣯ म꣣हो꣢ गा꣣हा꣢द्दि꣣व꣡ आ निर꣢꣯धुक्षत । इ꣡न्द्र꣢म꣣भि꣡ जाय꣢꣯मान꣣ꣳ स꣡म꣢स्वरन् ॥१४९४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्रत्नं पीयूषं पूर्व्यं यदुक्थ्यं महो गाहाद्दिव आ निरधुक्षत । इन्द्रमभि जायमानꣳ समस्वरन् ॥१४९४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣣त्न꣢म् । पी꣣यू꣡ष꣢म् । पू꣣र्व्य꣢म् । यत् । उ꣣क्थ्य꣢म् । म꣣हः꣢ । गा꣣हा꣢त् । दि꣣वः꣢ । आ । निः । अ꣣धुक्षत । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । जा꣡य꣢꣯मानम् । सम् । अ꣣स्वरन् ॥१४९४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1494 | (कौथोम) 7 » 1 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 1 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत्) जो (प्रत्नम्) सनातन, (पूर्व्यम्) पूर्वजों से अनुभूत और (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय है, उस (पीयूषम्) पान करने योग्य ब्रह्मानन्द-रूप अमृत को (महः) महान्, (गाहात्) गहन (दिवः) प्रकाशमय परमेश्वर से (आ निरधुक्षत) उपासक लोग दुहकर प्राप्त कर लेते हैं। (इन्द्रम् अभि) जीवात्मा के प्रति (जायमानम्) उत्पन्न होते हुए उसकी (ते) वे उपासक जन (समस्वरन्) भली-भाँति स्तुति करते हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परब्रह्म के पास से जीवात्मा के प्रति प्रवाहित होते हुए आनन्द-रस का उपासक लोग स्वागत-गानपूर्वक अभिनन्दन करते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ ब्रह्मानन्दरसं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यत् प्रत्नम्) सनातनम् (पूर्व्यम्) पूर्वैरनुभूतम्, (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयं चास्ति तत् (पीयूषम्) पेयं ब्रह्मानन्दामृतम् (महः) महतः, (गाहात्) गहनात्, (दिवः) द्योतमानात् परमेश्वरात् (आ निरधुक्षत) उपासका जनाः आभिमुख्येन निर्दुहन्ति। (इन्द्रम् अभि) जीवात्मानं प्रति (जायमानम्) उत्पद्यमानं तम्, ते उपासका जनाः (समस्वरन्) संस्तुवन्ति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परब्रह्मणः सकाशाज्जीवात्मानं प्रति परिस्रवन्नानन्दरस उपासकैः सस्वागतगानमभिनन्द्यते ॥१॥