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गौ꣡र्ध꣢यति म꣣रु꣡ता꣣ꣳ श्रव꣣स्यु꣢र्मा꣣ता꣢ म꣣घो꣡ना꣢म् । यु꣣क्ता꣢꣫ वह्नी꣣ र꣡था꣢नाम् ॥१४९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

गौर्धयति मरुताꣳ श्रवस्युर्माता मघोनाम् । युक्ता वह्नी रथानाम् ॥१४९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गौः꣢ । ध꣣यति । मरु꣡ता꣢म् । श्र꣣वस्युः꣢ । मा꣣ता꣢ । म꣣घो꣡ना꣢म् । यु꣣क्ता꣢ । व꣡ह्निः꣢꣯ । र꣡था꣢꣯नाम् ॥१४९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 149 | (कौथोम) 2 » 2 » 1 » 5 | (रानायाणीय) 2 » 4 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में ‘गौः’ शब्द द्वारा भूमि, गाय, वाणी, विद्युत् आदि के गुण-कर्म वर्णित हैं। इन्द्र से रचे गये भूमि आदि के वर्णन से रचयिता इन्द्र की ही स्तुति होती है, इस दृष्टि से मन्त्र का देवता इन्द्र है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—भूमि के पक्ष में। (मघोनाम्) ऐश्वर्यवान् (मरुताम्) मनुष्यों को (श्रवस्युः) मानो अन्न प्रदान करना चाहती हुई (माता) माता (गौः) भूमि (धयति) वर्षाजल को पीती है। (युक्ता) सूर्य से सम्बद्ध वह (रथानाम्) गतिमान् अग्नि, वायु, जल, पशु, पक्षी, मनुष्य आदिकों को (वह्निः) एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जानेवाली होती है ॥ द्वितीय—गाय के पक्ष में। (मघोनाम्) यज्ञ रूप ऐश्वर्य से युक्त (मरुताम्) यजमान मनुष्यों को (श्रवस्युः) दूध-घी प्रदान करना चाहती हुई (माता गौः) गौ माता के तुल्य गाय (धयति) स्वच्छ जल पीती है। (युक्ता) यज्ञ के लिए नियुक्त वह (रथानाम्) यज्ञ-रूप रथों की (वह्निः) चलानेवाली होती है ॥ तृतीय—विद्युत् के पक्ष में। (मघोनाम्) साधनवान् (मरुताम्) मनुष्यों को (श्रवस्युः) मानो धन प्रदान करना चाहती हुई (माता) निर्माण करनेवाली (गौः) अन्तरिक्ष में स्थित विद्युत् (धयति) मेघ के जलों को पीती है और (युक्ता) शिल्पकर्म में प्रयुक्त हुई वह (रथानाम्) कलायन्त्र, भूयान, जलयान, विमान आदिकों की (वह्निः) चलानेवाली होती है ॥ चतुर्थ—वाणी के पक्ष में। (मघोनाम्) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि के ऐश्वर्य से युक्त (मरुताम्) मनुष्यो को (श्रवस्युः) मानो अन्न, धन, विद्या, कीर्ति, आदि प्रदान करने की इच्छुक (माता गौः) माता वेदवाणी (धयति) ज्ञानरस का पान कराती है। (युक्ता) अध्ययन-अध्यापन में उपयोग लायी हुई वह (रथानाम्) रमणीय आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन, ब्रह्मवर्चस आदि की (वह्निः) प्राप्त करानेवाली होती है ॥५॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। ‘श्रवस्यु—मानो अन्न, धन, कीर्ति आदि प्राप्त कराना चाहती हुई’ में व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा है ॥५॥

भावार्थभाषाः -

इन्द्र परमात्मा से रची हुई भूमि, गाय, विद्युत्, वेदवाणी रूप गौओं का उपयोग लेकर सबको आध्यात्मिक, शारीरिक, भौतिक, वैज्ञानिक, याज्ञिक, सामाजिक और राष्ट्रिय उन्नति करनी चाहिए ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ गोशब्दद्वारा भूमिधेनुवाग्विद्युदादीनां गुणकर्माणि वर्ण्यन्ते। इन्द्ररचितानां भूम्यादीनां वर्णनेन रचयितुरेव स्तुतिर्भवतीति इन्द्रो देवता विज्ञेयः।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—भूमिपरः। (मघोनाम्) ऐश्वर्यवताम् (मरुताम्) मर्त्यानाम्। विशो वै मरुतः। श० २।५।१।१२। (श्रवस्युः) अन्नप्रदानकामा इव। श्रवः इत्यन्ननाम। निघं० २।७। तत् परेषां कामयते इति श्रवस्युः। छन्दसि परेच्छायां क्यच उपसंख्यानम्। अ० ३।१।८ वा० इति परेच्छायां क्यचि, क्याच्छन्दसि। अ० ३।२।१७० इति उ प्रत्ययः. (माता) मातृभूता। मा॒ता भूमिः॑ पु॒त्रो अ॒हं पृ॑थि॒व्याः। अथ० १२।१।१२ इति श्रुतेः। (गौः) पृथिवी। गौरिति पृथिव्या नामधेयं, यद् दूरं गता भवति, यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति। निरु० २।५। (धयति) वृष्टिजलं पिबति। धेट् पाने भ्वादिः। (युक्ता) सूर्येण सम्बद्धा सा (रथानाम्) रंहणशीलानाम् अग्निपवनजलपशुपक्षिमानवादीनाम्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः। निरु० ९।११। (वह्निः) वाहिका भवति ॥ अथ द्वितीयः—धेनुपरः। (मघोनाम्) यज्ञैश्वर्यवताम् (मरुताम्) यजमानानाम् (श्रवस्युः) पयोघृतप्रदानकामा (माता) जननीव हितकरी (गौः) यज्ञधेनुः। गौः धर्मधुगिति याज्ञिकाः। निरु० ११।३८। (धयति) स्वच्छं जलं पिबति। (युक्ता) यज्ञार्थं नियुक्ता सा (रथानाम्) यज्ञरूपरथानाम् (वह्निः) वाहिका जायते ॥ अथ तृतीयः—विद्युत्परः। (मघोनाम्) साधनवताम् (मरुताम्) मर्त्यानाम् (श्रवस्युः) धनप्रदानकामा इव। श्रवः इति धननाम। निघं० २।१०। (माता) निर्मात्री (गौः) अन्तरिक्षस्था विद्युत्। गौः वागेषा माध्यमिका इति निरुक्तम्। ११।३८। (धयति) मेघोदकानि पिबति। किञ्च, (युक्ता) शिल्पकर्मणि प्रयुक्ता, सा (रथानाम्) कलायन्त्रभूयानजलयानविमानादीनाम् (वह्निः) चालयित्री भवति ॥ अथ चतुर्थः—वाक्परः। (मघोनाम्) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिधनवताम् (मरुताम्) मनुष्याणाम् (श्रवस्युः) अन्नधनविद्याकीर्त्यादिप्रदानकामा। श्रवः इति अन्ननाम धननाम च प्रोक्तमेव। श्रवः श्रवणीयं यशः इति निरुक्तम्। ११।९। (माता) मातृतुल्या (गौः) वेदवाक्। गौः इति वाङ्नाम। निघं० १।११। (धयति) धापयति ज्ञानरसं पाययति। यथाह श्रुतिः—यस्ते॒ स्तनः॑ शश॒यो यो म॑यो॒भूर्येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्या॒णि। यो र॑त्न॒धा व॑सुविद् यः सुदत्रः॒ सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वे कः। ऋ० १।१६४।४९ इति। धयति इति णिज्गर्भः प्रयोगः। (युक्ता) अध्ययनाध्यापने उपयुक्ता सा, (रथानाम्) रमणीयानाम् आयुष्यप्राणप्रजापशुकीर्तिद्रविणब्रह्मवर्चसादीनाम् (वह्निः) प्रापयित्री संपद्यते। उक्तं च—स्तु॒ता मया॑ वर॒दा वे॑दमा॒ता प्रचो॑दयन्तां पावमा॒नी द्वि॒जाना॑म्। आयुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां प॒शुं की॒र्तिं द्रवि॑णं ब्रह्मवर्च॒सम्। मह्यं॑ द॒त्त्वा व्र॑जत ब्रह्मलो॒कम्। अथ० १९।७१ इति ॥५॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। श्रवस्युः इत्यत्र व्यङ्ग्योत्प्रेक्षा ॥५॥

भावार्थभाषाः -

इन्द्रेण परमात्मना रचितानां भूमि-धेनु-विद्युद्-वेदवाग्रूपाणां गवामुपयोगेन सर्वैराध्यात्मिकी शारीरिकी भौतिकी वैज्ञानिकी याज्ञिकी सामाजिकी राष्ट्रिया चोन्नतिः सम्पादनीया ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९४।१, देवता मरुतः।