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देवता: इन्द्रः ऋषि: प्रियमेध आङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣भि꣡ प्र गोप꣢꣯तिं गि꣣रे꣡न्द्र꣢मर्च꣣ य꣡था꣢ वि꣣दे꣢ । सू꣣नु꣢ꣳ स꣣त्य꣢स्य꣣ स꣡त्प꣢तिम् ॥१४८९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे । सूनुꣳ सत्यस्य सत्पतिम् ॥१४८९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣भि꣢ । प्र । गो꣡प꣢꣯तिम् । गो । प꣣तिम् । गिरा꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣र्च । य꣡था꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । सू꣣नु꣢म् । स꣣त्य꣢स्य꣢ । स꣡त्प꣢꣯तिम् । सत् । प꣣तिम् ॥१४८९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1489 | (कौथोम) 7 » 1 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 14 » 1 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में १६८ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय लेते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मित्र ! तू (गोपतिम्) इन्द्रियों के स्वामी, (सत्यस्य सूनुम्) सत्यस्वरूप परमात्मा के पुत्र, (सत्पतिम्) श्रेष्ठ विचारों के रक्षक (इन्द्रम्) इन्द्र नामक जीवात्मा को (अभि) लक्ष्य करके (प्र अर्च) बहुत अधिक उद्बोधन-वाक्यों का उच्चारण कर, (यथा) जिससे वह (विदे) बोध प्राप्त कर ले ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य का अपना आत्मा यदि तीव्र उद्बोधन प्राप्त कर ले, तो जगत् में उसके लिए कुछ भी दुर्लभ न हो ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १६८ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योः स्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे सखे ! त्वम् (गोपतिम्) गावः इन्द्रियाणि तेषां पतिं स्वामिनम्, (सत्यस्य सूनुम्) सत्यस्वरूपस्य परमात्मनः पुत्रम् (सत्पतिम्) सद्विचाराणां रक्षकम् (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (अभि) अभिलक्ष्य (प्र अर्च) प्रकर्षेण उद्बोधनवाक्यानि प्रोच्चारय। (यथा) येन, सः (विदे) बोधमवाप्नुयात् ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्य स्वकीय आत्मा चेद् प्रोद्बुद्धस्तर्हि जगति न किमपि तत्कृते दुर्लभम् ॥१॥