ते꣡ जा꣢नत꣣ स्व꣢मो꣣क्यं꣢३꣱सं꣢ व꣣त्सा꣢सो꣣ न꣢ मा꣣तृ꣡भिः꣢ । मि꣣थो꣡ न꣢सन्त जा꣣मि꣡भिः꣢ ॥१४८१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ते जानत स्वमोक्यं३सं वत्सासो न मातृभिः । मिथो नसन्त जामिभिः ॥१४८१॥
ते । जा꣣नत । स्व꣢म् । ओ꣣क्य꣢म् । सम् । व꣣त्सा꣡सः꣢ । न । मा꣣तृ꣡भिः꣢ । मि꣣थः꣢ । न꣣सन्त । जामि꣡भिः꣢ ॥१४८१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उसी विषय में कहा गया है।
(ते) वे परमेश्वर के उपासक (स्वम्) अपने (ओक्यम्) हृदय-सदन में विद्यमान परमात्माग्नि को (जानत) उपास्य रूप में जानते हैं और फिर उस परमेश्वर को उपासने के लिए (मिथः) आपस में (जामिभिः) माँ-बहिन आदियों के साथ (सं नसन्त) मिलकर बैठते हैं, (वत्सासः न) जैसे बछड़े (मातृभिः) अपनी माताओं गौओं के साथ (सं नसन्त) मिलते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे बछड़े प्रेम से गौओं के साथ रहते हैं, वैसे ही घर के बालक से लेकर बूढ़े तक सब लोग आपस में एक साथ बैठकर परमात्मा की उपासना किया करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(ते) परमेश्वरोपासकाः (स्वम्) स्वकीयम् (ओक्यम्) ओकसि हृदयगृहे भवं परमात्माग्निम् (जानत) उपास्यत्वेन जानन्ति। [अत्र ज्ञा धातोर्लडर्थे लङ् अडभावश्च।] ततश्च तं परमेश्वरम् उपासितुम् (मिथः) परस्परम् (जामिभिः) जननीभगिन्यादिभिः (सं नसन्त) संगच्छन्ते। कथमिव ? (वत्सासः न) वत्साः यथा (मातृभिः) गोभिः संगच्छन्ते, तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा वत्साः प्रेम्णा गोभिः संतिष्ठन्ते तथैव गृहस्याबालवृद्धं सर्वे जनाः परस्परमेकत्रोपविश्य परमात्मोपासनां कुर्युः ॥२॥