आ꣢ सु꣣ते꣡ सि꣢ञ्च꣣त श्रि꣢य꣣ꣳ रो꣡द꣢स्योरभि꣣श्रि꣡य꣢म् । र꣣सा꣡ द꣢धीत वृष꣣भ꣢म् ॥१४८०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ सुते सिञ्चत श्रियꣳ रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् ॥१४८०॥
आ꣢ । सु꣢ते꣡ । सि꣢ञ्चत । श्रि꣡य꣢꣯म् । रो꣡द꣢꣯स्योः । अ꣣भिश्रि꣡य꣢म् । अ꣣भि । श्रि꣡य꣢꣯म् । र꣣सा꣢ । द꣣धीत । वृषभ꣢म् ॥१४८०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रारम्भ में उपास्य उपासक का विषय वर्णन करते हैं।
हे मनुष्यो ! तुम (सुते) भक्तिरस के उमड़ने पर (रोदस्योः) द्युलोक और भूलोक के (अभिश्रियम्) शोभा-सम्पादक, (श्रियम्) आश्रय लेने योग्य अग्नि-नामक जगदीश्वर को (आ सिञ्चत) भक्तिरस से नहलाओ। (रसा) जगदीश्वर से निकली हुई आनन्दरस की नदी (वृषभम्) तुम्हारे ज्ञानसिक्त जीवात्मा को (दधीत) बल और पुष्टि प्रदान करे ॥१॥ यहाँ ‘श्रियम्’ की पुनरुक्ति में यमक अलङ्कार है ॥१॥
जब परमेश्वर के उपासक उसके प्रति भक्तिरस की नदी प्रवाहित करते हैं, तब परमेश्वर उनके प्रति आनन्द-रस की नदी बहाता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादावुपास्योपासकविषये वर्ण्यते।
हे मानवाः ! यूयम् (सुते) भक्तिरसे अभिषुते सति (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योः (अभिश्रियम्) शोभासम्पादकम् [अभिगता श्रीर्येन सः अभिश्रीः तम्।] (श्रियम्) आश्रयणीयम् अग्निं जगदीश्वरम् (आ सिञ्चत) भक्तिरसेन क्लेदयत। (रसा) जगदीश्वरान्निःसृता आनन्दरसनदी (वृषभम्) युष्माकं ज्ञानसिक्तं जीवात्मानम् (दधीत) परिपुष्णीयात् ॥१॥२ अत्र ‘श्रियम्’ इत्यस्य पुनरुक्तौ यमकालङ्कारः ॥१॥
यदा परमेश्वरस्योपासकास्तं प्रति भक्तिरसतरङ्गिणीं प्रवाहयन्ति तदा परमेश्वरस्तान् प्रत्यानन्दरसतरङ्गिणीं प्रवाहयति ॥१॥