शु꣣ष्मी꣢꣫ शर्धो꣣ न꣡ मारु꣢꣯तं पव꣣स्वा꣡न꣢भिशस्ता दि꣣व्या꣢꣫ यथा꣣ वि꣢ट् । आ꣢पो꣣ न꣢ म꣣क्षू꣡ सु꣢म꣣ति꣡र्भ꣢वा नः स꣣ह꣡स्रा꣢प्साः पृतना꣣षा꣢꣫ण् न य꣣ज्ञः꣢ ॥१४७३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)शुष्मी शर्धो न मारुतं पवस्वानभिशस्ता दिव्या यथा विट् । आपो न मक्षू सुमतिर्भवा नः सहस्राप्साः पृतनाषाण् न यज्ञः ॥१४७३॥
शुष्मी꣢ । श꣡र्धः꣢꣯ । न । मा꣡रु꣢꣯तम् । प꣣वस्व । अ꣡न꣢꣯भिशस्ता । अन् । अ꣣भिशस्ता । दिव्या꣢ । य꣡था꣢꣯ । विट् । आ꣡पः꣢꣯ । न । म꣣क्षु꣢ । सु꣣मतिः꣢ । सु꣣ । मतिः꣢ । भ꣣व । नः । सहस्रा꣡प्साः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢ । अ꣣प्साः । पृतनाषा꣢ट् । न । य꣣ज्ञः꣢ ॥१४७३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में मनुष्य को प्रेरित किया गया है।
हे सोम अर्थात् शान्तिप्रिय मानव ! (शुष्मी) बलवान् तू (मरुतां शर्धः न) पवनों के गण के समान (पवस्व) क्रियाशील बन। (दिव्या विट्) दिव्य गुणोंवाली विदुषी प्रजा (यथा) जैसे (अनभिशस्ता) अनिन्दित होती है, वैसे ही तू अनिन्दित हो। (आपः न) नदियों के समान (मक्षु) शीघ्र (नः) हमारे लिए (सुमतिः) परोपकार की मतिवाला (भव) बन। (सहस्राप्साः) सहस्र रूपोंवाले (पृतनाषाट् न) सेनाओं को पराजित करनेवाले सेनापति के समान (यज्ञः) आत्म-बलिदान करनेवाला बन ॥३॥ यहाँ मालोपमा अलङ्कार है ॥३॥
मनुष्य यदि पवनों के समान बलवान् विद्वानों के समान प्रशस्त, नदियों के समान परोपकारी और सेनापतियों के समान आत्म-बलिदान करनेवाले हों, तो निश्चित ही राष्ट्र सर्वोन्नत हो जाए ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मानवं प्रेरयति।
हे सोम शान्तिप्रिय मानव ! (शुष्मी) बलवान् (मारुतं शर्धः न) मरुतां गणः इव (पवस्व) क्रियाशीलो भव। किञ्च, (दिव्या विट्) दिव्यगुणयुक्ता विदुषी प्रजा (यथा) यद्वत् (अनभिशस्ता२) अनिन्दिता भवति, तथा त्वम् अनिन्दितो भव। अपि च, (आपः न) नद्यः इव (मक्षु) शीघ्रत्वेन (नः) अस्मभ्यम् (सुमतिः) परोपकारमतिः (भव) जायस्व। तथा च, (सहस्राप्साः) सहस्ररूपः। [अप्स इति रूपनाम। निघं० ३।७।] (पृतनाषाट् न) सेनानां पराजेता सेनापतिरिव (यज्ञः) आत्मबलिदानकर्ता भव ॥३॥ अत्र मालोपमालङ्कारः ॥३॥
मानवा यदि वायुगणा इव बलिनो, विद्वांस इव प्रशस्ता, नद्य इव परोपकारपरायणाः, सेनापतय इवात्मबलिदानकर्तारो भवेयुस्तर्हि नूनं राष्ट्रं सर्वोन्नतं स्यात् ॥३॥