यु꣣ञ्ज꣡न्ति꣢ ब्र꣣ध्न꣡म꣢रु꣣षं꣡ चर꣢꣯न्तं꣣ प꣡रि꣢ त꣣स्थु꣡षः꣢ । रो꣡च꣢न्ते रोच꣣ना꣢ दि꣣वि꣢ ॥१४६८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ॥१४६८॥
यु꣣ञ्ज꣡न्ति꣢ । ब्र꣣ध्न꣢म् । अ꣣रुष꣢म् । च꣡र꣢न्तम् । प꣡रि꣢꣯ । त꣣स्थु꣢षः꣢ । रो꣡च꣢꣯न्ते । रो꣣चना꣢ । दि꣣वि꣢ ॥१४६८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में दो हरियों का रथ में जोड़ना वर्णित है।
प्रथम—प्राण-अपान के विषय में। विद्वान् योगी लोग (अस्य) इस इन्द्र नामक जीवात्मा के (रथे) शरीररूप रथ में (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) प्राणक्रिया और अपानक्रिया रूप विशिष्ट पंखोंवाले, (शोणा) गतिशील, (धृष्णू) चतुर, (नृवाहसा) मनुष्य-देह को वहन करनेवाले (हरी) प्राण-अपान रूप दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) प्राणायाम की विधि से उपयोग में लाते हैं ॥ द्वितीय—शिल्प के विषय में। शिल्पी लोग (अस्य) इस सूर्य या बिजली रूप अग्नि के (काम्या) कमनीय, (विपक्षसा) परस्पर विरुद्ध गुणवाले, (शोणा) गतिशील, (धृष्णू) घर्षणशील, (नृवाहसा) मनुष्यों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जानेवाले (हरी) ऋणात्मक विद्युत् तथा धनात्मक विद्युत् रूप दो घोड़ों को (युञ्जन्ति) भूयान, जलयान तथा विमानों में जोड़ते हैं ॥२॥
जैसे प्राणायाम का अभ्यास करनेवाले विद्वान् लोग प्राण-अपान रूप घोड़ों को नियुक्त करके शरीर-रथ को चलाते हैं,वैसे ही शिल्पी लोग ऋण और धन विद्युत् को यान आदि तथा घर आदि में लगाकर यात्रा और प्रकाश किया करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ हर्यो रथयोगो वर्ण्यते।
प्रथमः—प्राणापानपरः। विद्वांसो योगिनो जनाः (अस्य) इन्द्रस्य जीवात्मनः (रथे) देहरूपे (काम्या) काम्यौ कामयितव्यौ, (विपक्षसा) विपक्षसौ प्राणनापाननक्रियारूपविशिष्टपक्षौ, (शोणा) शोणौ गतिशीलौ। [शोणृ वर्णगत्योः भ्वादिः।] (धृष्णू) प्रगल्भौ, (नृवाहसा) नृवाहसौ नृणां मानवदेहानां वोढारौ (हरी) प्राणापानरूपौ अश्वौ (युञ्जन्ति) प्राणायामविधिना उपयुञ्जते ॥ द्वितीयः—शिल्पपरः। शिल्पिनो जनाः (अस्य) इन्द्रस्य सूर्यस्य विद्युदग्नेर्वा (काम्या) कामयितव्यौ, (विपक्षसा) परस्परविरुद्धगुणौ, (शोणा) गतिशीलौ, (धृष्णू) धर्षणशीलौ (नृवाहसा) मनुष्याणां वाहकौ स्थानान्तरप्रापकौ (हरी) ऋणात्मकधनात्मकविद्युद्रूपौ अश्वौ (युञ्जन्ति) भूजलान्तरिक्षयानेषु प्रयुञ्जते ॥२॥२
यथा प्राणायामाभ्यासिनो विद्वांसो जनाः प्राणापानरूपौ हरी नियुज्य देहयज्ञं निर्वहन्ति तथैव शिल्पिनो जना ऋणात्मकधनात्मकविद्युतौ यानादिषु गृहादिषु च नियुज्य यात्रां प्रकाशं च कुर्युः ॥२॥