ऋ꣣त꣢मृ꣣ते꣢न꣣ स꣡प꣢न्तेषि꣣रं꣡ दक्ष꣢꣯माशाते । अ꣣द्रु꣡हा꣢ दे꣣वौ꣡ व꣢र्धेते ॥१४६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥१४६६॥
ऋ꣣त꣢म् । ऋ꣣ते꣡न꣢ । स꣡प꣢꣯न्ता । इ꣣षिर꣢म् । द꣡क्ष꣢꣯म् । आ꣣शातेइ꣡ति꣢ । अ꣣द्रु꣡हा꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हा꣢꣯ । दे꣣वौ꣢ । व꣣र्धेतेइ꣡ति꣢ ॥१४६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः ब्राह्मण-क्षत्रिय का विषय वर्णित है।
ये मित्र-वरुण अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्रिय (ऋतम्) राष्ट्र-यज्ञ की (ऋतेन) सत्य ब्रह्मबल वा सत्य क्षात्रबल से (सपन्ता) सेवा करते हुए (इषिरम्) प्रेरक (दक्षम्) उत्साह को (आशाते)प्राप्त करते हैं। (अद्रुहा) आपस में द्रोह न करनेवाले (देवौ) ब्रह्मवर्चस वा क्षात्र तेज से प्रकाशमान, दानादि गुणों से युक्त ये (वर्धेते) वृद्धि प्राप्त करते हैं ॥२॥
आपस में द्रोह न करते हुए, अपितु सहयोग करते हुए ब्राह्मण और क्षत्रिय ब्रह्मबल और क्षात्रबल का उपयोग करके स्वयं बढ़ते हुए राष्ट्र को भी बढ़ाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि ब्राह्मणक्षत्रियविषयमाह।
इमौ मित्रावरुणौ ब्राह्मणक्षत्रियौ (ऋतम्) राष्ट्रयज्ञम्। [ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे इति यास्कः। निरु० ६।२२।] (ऋतेन) सत्येन ब्रह्मबलेन क्षात्रबलेन च (सपन्ता) सपन्तौ परिचरन्तौ। [सपतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५।] (इषिरम्) प्रेरकम् (दक्षम्) उत्साहम् (आशाते) व्याप्नुतः। [इषिरम्—इष गतौ दिवादिः। ‘इषिमदि०’ उ० १।५१ इत्यनेन किरच् प्रत्ययः। दक्षम् दक्षतिरुत्साहकर्मा। निरु० १।६।] (अद्रुहा) अद्रुहौ परस्परम् अद्रोग्धारौ, (देवौ) ब्रह्मवर्चसेन क्षात्रेण च तेजसा प्रकाशमानौ दानादिगुणयुक्तौ इमौ (वर्धेते) वृद्धिं प्राप्नुतः ॥२॥२
परस्परं द्रोहमकुर्वाणौ प्रत्युत सहयोगं कुर्वन्तौ ब्राह्मणक्षत्रियौ ब्रह्मबलं क्षात्रबलं चोपयुज्य स्वयं वर्धमानौ राष्ट्रमपि वर्धयेते ॥२॥