अ꣢ग्न꣣ आ꣡यू꣢ꣳषि पवस꣣ आ꣢ सु꣣वो꣢र्ज꣣मि꣡षं꣢ च नः । आ꣣रे꣡ बा꣢धस्व दु꣣च्छु꣡ना꣢म् ॥१४६४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अग्न आयूꣳषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः । आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ॥१४६४॥
अ꣡ग्ने꣢꣯ । आ꣡यू꣢꣯ꣳषि । प꣣वसे । आ꣢ । सु꣣व । ऊ꣡र्ज꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । च꣣ । नः । आरे꣢ । बा꣣धस्व । दुच्छुना꣡म्꣢ ॥१४६४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीय ऋचा पूर्वार्चिक में ६२७ क्रमाङ्क पर परमात्मा और विद्वान् राजा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ आचार्य को कहते हैं।
हे (अग्ने) चरित्र को ऊँचा उठानेवाले आचार्यवर ! आप शिष्यों के (आयूंषि) जीवनों को (पवसे) पवित्र करते हो। (नः) हम शिष्यों के लिए (ऊर्जम्) आत्मबल वा चरित्र-बल, (इषं च) और अभीष्ट विद्या (आसुव) प्रदान करो। (दुच्छुनाम्) दुर्गति करनेवाली अविद्या को (आरे) दूर (बाधस्व) बाधित कर दो ॥३॥
श्रेष्ठ आचार्य को प्राप्त कर विद्यार्थी पवित्रात्मा और विद्वान् होकर समावर्तन के अनन्तर घर आकर राष्ट्र को उन्नत करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ६२७ क्रमाङ्के परमात्मानं विद्वांसं राजानं च सम्बोधिता। अत्राऽऽचार्य उच्यते।
हे (अग्ने) चरित्रोन्नायक आचार्यवर ! त्वम्, शिष्याणाम् (आयूंषि) जीवनानि (पवसे) पुनासि। (नः) शिष्येभ्यः अस्मभ्यम् (ऊर्जम्) आत्मबलं चरित्रबलं वा (इषं च) अभीष्टां विद्यां च (आसुव) समन्तात् प्रेरय, प्रदेहीत्यर्थः। (दुच्छुनाम्) दुर्गतिहेतुकाम् अविद्याम् (आरे) दूरे (बाधस्व) अपगमय ॥३॥२
श्रेष्ठमाचार्यं प्राप्य विद्यार्थिनो पवित्रात्मानो विद्वांसश्च भूत्वा समावर्तनानन्तरं गृहमागत्य राष्ट्रमुन्नयन्तु ॥३॥