सो꣣मा꣢ना꣣ꣳ स्व꣡र꣢णं कृणु꣣हि꣡ ब्र꣢ह्मणस्पते । क꣣क्षी꣡व꣢न्तं꣣ य꣡ औ꣢शि꣣जः꣢ ॥१४६३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोमानाꣳ स्वरणं कृणुहि ब्रह्मणस्पते । कक्षीवन्तं य औशिजः ॥१४६३॥
सो꣣मा꣡ना꣢म् । स्व꣡र꣢꣯णम् । कृ꣣णुहि꣢ । ब्र꣣ह्मणः । पते । कक्षी꣡व꣢न्तम् । यः । औ꣣शिजः꣢ ॥१४६३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा पूर्वार्चिक में १३९ क्रमाङ्क पर जगदीश्वर को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ आचार्य को कहते हैं।
हे (ब्रह्मणः पते) वेदों के प्रकाण्ड पण्डित आचार्य ! (यः) जो मैं (औशिजः) बहुत अधिक वेदाध्ययन का इच्छुक हूँ, उस मुझको, आप (सोमानाम्) ज्ञानों का (स्वरणम्) प्राप्तकर्ता और (कक्षीवन्तम्) कटिबद्ध (कृणुहि) कर दो ॥२॥
गुरुओं का यह कर्तव्य है कि वे शिष्यों को विद्वान् और कर्मयोगी बनायें। पुरुषार्थहीन विद्वत्ता कुछ काम नहीं आती है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके १३९ क्रमाङ्के जगदीश्वरं सम्बोधिता। अत्राऽऽचार्य उच्यते।
हे (ब्रह्मणः पते) वेदानां पण्डितप्रकाण्ड आचार्य ! (यः) योऽहम् (औशिजः) अतिशयेन वेदाध्ययनकामः अस्मि, तं माम्, त्वम् (सोमानाम्) ज्ञानानाम् (स्वरणम्) प्रापकम्।[स्वरतिः गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (कक्षीवन्तम्) कटिबद्धं च (कृणुहि) कुरु ॥२॥२
गुरूणामिदं कर्तव्यं यत्ते शिष्यान् विदुषः कर्मयोगिनश्च कुर्युः। पुरुषार्थहीनं वैदुष्यमकिञ्चित्करं खलु ॥२॥