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प्र꣣भङ्गी꣡ शूरो꣢꣯ म꣣घ꣡वा꣢ तु꣣वी꣡म꣢घः꣣ स꣡म्मि꣢श्लो वी꣣꣬र्या꣢꣯य꣣ क꣢म् । उ꣣भा꣡ ते꣢ बा꣣हू꣡ वृष꣢꣯णा शतक्रतो꣣ नि꣡ या वज्रं꣢꣯ मिमि꣣क्ष꣡तुः꣢ ॥१४५९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्रभङ्गी शूरो मघवा तुवीमघः सम्मिश्लो वीर्याय कम् । उभा ते बाहू वृषणा शतक्रतो नि या वज्रं मिमिक्षतुः ॥१४५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रभङ्गी꣢ । प्र꣣ । भङ्गी꣢ । शू꣡रः꣢꣯ । म꣣घ꣡वा꣢ । तु꣣वी꣡म꣣घः । तु꣣वि꣢ । म꣣घः । सं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । वी꣢꣯र्याय । कम् । उ꣣भा꣢ । ते꣣ । बाहू꣡इति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णा । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । नि꣢ । या । व꣡ज्र꣢꣯म् । मि꣣मिक्ष꣡तुः꣢ ॥१४५९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1459 | (कौथोम) 6 » 3 » 7 » 2 | (रानायाणीय) 13 » 3 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा के गुणकर्मों का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे जगदीश्वर ! आप (प्रभङ्गी) दुष्टों और दुर्गुणों के तीव्र भञ्जक, (शूरः) वीर, (मघवा) ऐश्वर्यवान्, (तुवीमघः) बहुत दानी और (वीर्याय) हमें बल प्रदान करने के लिए (कम्) निश्चय ही (सम्मिश्लः) हमसे मिलनेवाले, हमारे साथ सखित्व स्थापित करनेवाले हो। हे (शतक्रतो) बहुत प्रज्ञा तथा बहुत कर्मोंवाले ! (उभा) दोनों (वृषणा) वर्षा करनेवाले वायु और सूर्य (ते) आपकी (बाहू) बाहुएँ हैं, (या) जो (वज्रम्) जल को (नि मिमिक्षतुः) निरन्तर सींचा करती हैं ॥२॥ यहाँ वर्षक वायु और सूर्य में बाहुओं के आरोप के कारण रूपक अलङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे कोई बाहुधारी मनुष्य बाहुओं में घड़ा आदि पकड़कर भूमि पर जल सींचता है, वैसे ही जगदीश्वर वायु और सूर्य रूप बाहुओं में मेघ रूप घड़े को लेकर वर्षाजल भूमि पर बरसाता है ॥२॥ इस खण्ड में सूर्य के वर्णन द्वारा तथा प्रत्यक्षतः भी परमात्मा की महिमा का वर्णन होने से और उसके प्रति प्रार्थना होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तेरहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मनो गुणकर्माणि वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र जगदीश्वर ! त्वम् (प्रभङ्गी) दुष्टानां दुर्गुणानां च प्रभञ्जकः, (शूरः) वीरः, (मघवा) ऐश्वर्यवान्, (तुवीमघः) बहुदानः, (वीर्याय) अस्मभ्यं बलप्रदानाय (कम्) किल (सम्मिश्लः) सम्मिश्लः, अस्माभिः सह सख्यस्य स्थापयिता, वर्तसे इति शेषः। हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ बहुकर्मन् ! (उभा) द्वावपि (वृषणा) वृषणौ वर्षकौ वायुसूर्यौ (ते) तव (बाहू) भुजौ स्तः, (या) यौ (वज्रम्) उदकम्। [वज्रो वा आपः। श० १।१।१।१७।] (निमिक्षतुः) सिञ्चतः। [मिह सेचने अस्मात् स्वार्थे सन्। लिटि ‘अमन्त्रे’ इति निषेधात् आमभावः] ॥२॥ अत्र वर्षकयोर्वायुसूर्ययोर्बाहुत्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा कश्चिद् बाहुमान् मनुष्यो बाह्वोर्घटादिकं गृहीत्वा भूमौ जलं सिञ्चति तथैव जगदीश्वरो वायुसूर्यरूपयोर्बाह्वोर्मेघरूपं घटं गृहीत्वा वृष्ट्युदकं भूमौ वर्षति ॥२॥ अस्मिन् खण्डे सूर्यवर्णनद्वारा प्रत्यक्षतश्चापि परमात्मनो महिमवर्णनात् तं प्रति प्रार्थनाच्चैतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या।